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________________ वसुदेवहिण्डी की खण्डकथाएँ डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव 'वसुदेवहिण्डी' आचार्य संघदासगणी (ई. तृतीय-चतुर्थ शती) की ऐसी पार्यन्तिक कथाकृति है, जिसे हम महाकवि गुणाढ्य (ईसवी प्रथम शती) की पैशाची में निबद्ध बृहत्कथा (बड्डकहा) का प्राकृत-नव्योद्भावन कहेंगे, तो अधिक संगत होगा। संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' की मूलकथा के विकास के लिए जो खण्डकथाएँ जोड़ी हैं, उनकी संज्ञाएँ विभिन्न रूपों में रखी हैं। ये संज्ञाएँ इस प्रकार हैं : कहाणय (कथानक), कहा (कथा), संबंध (सम्बन्ध), कहासंबंध (कथासम्बन्ध), दिटुंत (दृष्टान्त), णाय (ज्ञात), उदंत (उदन्त), अक्खाणय (आख्यानक), परिचय, चरिय (चरित), पसंग (प्रसंग), अप्पकहा या अत्तकहा (आत्मकथा), आहरण और उदाहरण । ये सभी संज्ञाएँ प्रायः एक दूसरे की पर्यायवाची हैं, फिर भी कथा की प्रकृति की दृष्टि से इनमें सूक्ष्म भेद लक्षणीय हैं। इसीलिए खण्डकथाओं को विभिन्न संज्ञाओं के साथ उपन्यस्त करने में कथाकार का विशिष्ट उद्देश्य या अभिप्राय परिलक्षित होता है। अन्यथा, सभी खण्डकथाओं या उपकथाओं की संज्ञा एक ही रखते । अवश्य ही, इन सभी संज्ञाओं से तत्कालीन कथाओं के चारित्रिक विकास की बहुमुखता की सूचना मिलती है। संघदासगणी ने अपनी इस बृहत्कथा में दो खण्डकथाओं का 'कथानक' शब्द से निर्देश किया है। वे हैं : 'विशेषपरिणाए इब्भपुत्तकहाणयं' (८.१२) तथा ‘एगभवम्मि वि संबंधविचिन्तताए कुबेरदत्त-कुबेरदत्ता कहाणयं, (२७.७)। इन कथानक-संज्ञक दोनों खण्डकथाओं में दो गणिकाओं की कथाएँ गुम्फित की गई हैं, जिनकी परिणति धर्मकथा में हुई है। पहली खण्डकथा में एक इभ्यपुत्र की एक ऐसी गणिका के साथ प्रेम-प्रसंग की कथा है, जो अपने ग्राहकों को विदा करते समय स्मृति चिह्न-स्वरूप अपना कोई आभूषण उपहार में देती थी। दूसरी कथानक-संज्ञक खण्डकथा में एक भव में ही सम्बन्ध की विचित्रता के प्रतिपादन के निमित्त उपन्यस्त हुई है। इसमें भी कुबेरसेना नाम की गणिका की कथा का परिगुम्फन हुआ है, जिसमें गणिका द्वारा परित्यक्त उसके बेटे और बेटी का अज्ञात परिस्थिति में आपस में विवाह हो जाता है। कुबेरदत्ता को उसी समय * पी. एन. सिन्हा कॉलोनी, भिखनापहाड़ी, पटना-८०० ००६ * पृष्ठ और पंक्तिसंख्या का निर्देश इन पंक्तियों के लेखक के, पं. रामप्रताप शास्त्री चेरिटेबुल ट्रस्ट, ब्यावर (राजस्थान) से प्रकाशित 'वसुदेवहिण्डी' के मूल-सह-हिन्दी-अनुवाद-संस्करण के अनुसार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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