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________________ 98 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 २७ रूप से किया हो या रविषेण के पद्मचरित के माध्यम से किया हो, किन्तु इतना सत्य है कि उनपर यह प्रभाव आया है । 'वरांगचरित' में श्रावक के व्रतों की जो विवेचना उपलब्ध होती है, वह न तो पूर्णतः श्वेताम्बर-परम्परा के उपासकदशासूत्र के निकट है और न पूर्णतः दिगम्बर-परम्परा द्वारा मान्य तत्त्वार्थ के पूज्यपाद देवनन्दी की 'सर्वार्थसिद्धि' के मूलपाठ के निकट है । अपितु, वह विमलसूरि के पउमचरिय के निकट है। पउमचरिय के समान ही इसमें भी देशावकाशिक व्रत का अन्तर्भाव दिग्वत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए संलेखना को बारहवाँ शिक्षावत माना गया है 1 कुन्दकुन्द ने भी इस परम्परा का अनुसरण किया है२८, किन्तु कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो निश्चित ही परवर्ती हैं और सम्भवतः जटासिंहनन्दी से भी । अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है । स्मरण रहे कि कुन्दकुन्द ने त्रस-स्थावर के वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग आदि के सम्बन्ध भी आगमिक परम्परा का अनुसरण किया है और उनके ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ मिलती हैं । स्पष्ट है कि विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण रविषेण, स्वयम्भू आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है अतः जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की सम्भावना प्रबल प्रतीत होती है । (९) जटासिंहनन्दी ने 'वरांगचरित' के नवें सर्ग में कल्पवासी देवों के प्रकारों का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह दिगम्बर- परम्परा से भिन्न है । वैमानिक देवों के भेद को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा में स्पष्ट रूप से मतभेद है । जहाँ श्वेताम्बर - परम्परा वैमानिक देवों के १२ विभाग. मानती है, वहाँ दिगम्बर- परम्परा उनके १६ विभाग मानती । इस सन्दर्भ में जटासिंहनन्दी स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर या आगमिक परम्परा के निकट हैं। वे नवें सर्ग के द्वितीय श्लोक में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कल्पवासी देवों के २९ ३० बारह भेद हैं 1 पुनः इसी सर्ग के सातवें श्लोक से नवें श्लोक तक 'उत्तराध्ययनसूत्र' के समान उन १२ देवलोकों के नाम भी गिनाते हैं । यहाँ वे स्पष्ट रूप से न केवल दिगम्बर- परम्परा से भिन्न होते हैं, बल्कि किसी सीमा तक यापनीयों से भिन्न प्रतीत होते हैं । यद्यपि स्मरण रखना होगा कि यापनीयों में प्रारम्भ में आगमों का अनुसरण करते हुए १२ भेद मानने की प्रवृत्ति रही होगी, किंतु बाद में दिगम्बर- परम्परा या अन्य किसी प्रभाव से उनमें १६ भेद मानने की परम्परा विकसित हुई होगी । ' तत्त्वार्थसूत्र' के सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में तथा 'तिलोयपण्णत्ति' में इन दोनों ही परम्पराओं के बीज देखे जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र का सर्वार्थसिद्धि-मान्य यापनीय पाठ जहाँ देवों के प्रकारों की चर्चा करता है, वहाँ वह १२ का निर्देश करता है किन्तु जहाँ वह उनके नामों का विवरण प्रस्तुत करता है तो वहाँ १६ नाम प्रस्तुत करता है । यतिवृषभ की 'तिलोयपण्णत्ति' में भी १२ और १६ दोनों प्रकार की मान्यताएँ होने का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है । ३२ इससे साफ जाहिर है कि प्रारम्भ में आगमिक मान्यता का अनुसरण करते हुए यापनीयों ३१ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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