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________________ 74 Vaishali Insitute Research Bulletin No. 8 दक्षिण की ओर ऋषभनाथ का समवसरण है । समवसरण एक देवनिर्मित सभा है, जहाँ कैवल्य-प्राप्ति के बाद प्रत्येक तीर्थंकर अपना प्रथम धर्मोपदेश देते थे । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के विवरण के समान समवसरण तीन प्राचीरोंवाली तथा प्रत्येक प्राचीरों में चार द्वारोंवाली वृत्ताकार देवनिर्मित सभा के रूप में दिखाया गया है । " चौथे आयत में ऋषभ नाथ के यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी भी उत्कीर्ण हैं । महावीर - मन्दिर के वितान के दृश्य कुछ परिवर्तनों अथवा अतिरिक्त विवरणों के अलावा मूलतः शान्तिनाथ मन्दिर के समान हैं। सम्पूर्ण दृश्यावली तीन आयतों में विभक्त है। बाहरी पट्टिका में पूर्व की ओर सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में वार्तालाप करती वज्रनाभ एवं अन्य आकृतियाँ बनी हैं। लेख में 'सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग' भी उत्कीर्ण है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में उल्लेख है कि वज्रनाभ का जीव सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग से ही मरुदेवी के गर्भ आया था। दूसरे आयत में उत्तर की ओर नवजात शिशु के साथ लेटी मरुदेवी हैं जिनके समीप इन्द्र, संगीतज्ञों के एक समूह तथा कलश, चामर लिए हुए दिक्कुमारियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में तीर्थंकर जन्म के समय इन्द्र तथा दिक्कुमारियों के उपस्थित होने का सन्दर्भ मिलता है । १० पूर्व में इन्द्र द्वारा नवजात शिशु को अभिषेक हेतु मेरु पर्वत पर ले जाते हुए दिखाया गया है । आगे इन्द्र को पद्मासन में शिशु को गोद में लेकर बैठे दिखाया गया है, जिनके दोनों पावों में शिशु के अभिषेक हेतु अन्य इन्द्रों की कलशधारी आकृतियाँ बनी हैं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में नवजात शिशु को मेरुपर्वत पर ले जाने तथा अन्य इन्द्रों द्वारा उनका अभिषेक करने का सन्दर्भ मिलता है । ११ शान्तिनाथ एवं महावीर - मन्दिरों की भ्रमिकाओं पर जैन परम्परा के सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के जीवनदृश्य देखे जा सकते हैं। सबसे बाहरवाली पट्टिका में शान्तिनाथ के दसवें पूर्वभव की एक कथा का अंकन हुआ है, जिसका उल्लेख त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में मिलता है । ग्रन्थ में उल्लेख है कि शान्तिनाथ दसवें पूर्वभव में मेघरथ नामक राजा के रूप में उत्पन्न हुए। किसी समय सुरूप देव मेघरथ की परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक कपोत के शरीर में प्रविष्ट हो गये। बाज से प्राणरक्षा की गुहार करता हुआ कपोत दरबार में बैठे मेघरथ की गोद में आ गिरा। कुछ समय पश्चात् बाज भी वहाँ पहुँचा और अपना आहार (कपोत) माँगने लगा । मेघरथ ने बाज से कपोत के स्थान पर कुछ और ग्रहण करने को कहा। बाज इस बात पर सहमत हुआ कि यदि उसे मनुष्य का उतना ही मांस मिल जाए तो वह अपनी क्षुधा - पूर्ति कर सकता है । मेघरथ ने तत्क्षण एक तुला मंगवायी और अपने शरीर का मांस काटकर उसपर रखना प्रारम्भ किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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