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________________ समाज में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद की महत्ता । 447 अस्तित्व को अस्वीकार नही किया जा सकता, इस अपेक्षा से वह है। नास्तित्व को स्वीकार किए बिना उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, इस अपेक्षा से वह नहीं है। उसके होने और नहीं होने के क्षण दो नहीं हैं। वह जिस क्षण में है उसी क्षण में नहीं है और जिस क्षण में नहीं है उसी क्षण में है। ये दोनों बातें एक साथ नहीं कही जा सकती हैं। इस अपेक्षा से जीवन अवक्तव्य है। इस तरह शेष तीन भंगों को अर्थात् अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति नास्ति अवक्तव्य के स्वरूप को जान लेना आवश्यक है। वस्तु के अखंड ज्ञान का बोध तभी हो सकता है जब उसके साथ स्यात् (अपेक्षा) शब्द का भाव जुड़ा हो। देश का प्रधानमंत्री किसी अपेक्षा से सर्वोच्च शासक है किन्तु राष्ट्रपति की अपेक्षा से उसे हम सर्वोच्च शासक नहीं कह सकते। इसी तरह प्रदेश के मुख्यमंत्री का अपने प्रदेश की अपेक्षा से सर्वोच्च पद है किन्तु देश के प्रधानमंत्री की अपेक्षा से उसका सर्वोच्च पद नहीं है। इस प्रकार किसी भी सिद्धान्त एवं मान्यता का, अपेक्षा के धागे को तोड़कर प्रतिपादन होता है तो मिथ्या है किन्तु अपेक्षा के धागे को जोड़कर यदि उनका प्रतिपादन किया जाता है तो वह सत्य हो जाता है। भगवान महावीर को जब उनके साथी ढूंढने गये तो वे महल की चतुर्थ मंजिल पर थे। जब उनकी माता से पूछा गया कि महावीर कहाँ है? तो उन्होंने कहा कि वे नीचे हैं क्योंकि वे छठी मंजिल में थीं और जब उनके पिता से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ऊपर हैं क्योंकि वे दूसरी मंजिल में थे। यहाँ उनकी माता का कथन एक अपेक्षा से सही है तो किसी अपेक्षा से पिता का कथन भी सही है। अनेकान्त का अर्थ है वस्तु की अखंड सत्ता का भान और स्याद्वाद का अर्थ है एक खंड के माध्यम से अखंड वस्तु का कथन। इसलिए आचार्यों ने अनेकान्तवाद को विश्व का एकमेव गुरु स्वीकार करके उसको नमस्कार किया है। सप्तभंगी नय को भगवान महावीर ने अनेक दृष्टान्तों द्वारा समझाया है। उनमें छ: अंधों और हाथी का दृष्टान्त अत्यधिक प्रसिद्ध है। सभी छहो अंधों ने हाथी के एकएक सूंड, पैर, कान, पूंछ आदि अंगों को छुआ और उन-उन अंगों को ही हाथी समझ लिया। किन्तु सबका हाथी के सम्बन्ध में ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक था, हाथी का पूर्ण ज्ञान तो इन सभी आंशिक ज्ञानों की समग्रता में है, क्योंकि हाथी सभी अंगों की समष्टिरूप है। इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि यदि हम अपनी-अपनी मान्यता या दृष्टिकोण को ही सत्य मान बैठें तो वह एकान्तिक दृष्टिकोण होगा जिससे अनैकान्तिक वस्तु के वास्तविक स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। अनेकान्त एक न्यायाधीश अनेकान्त दर्शन तो वस्तु तत्त्व के निर्धारण के लिए न्यायाधीश के पद पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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