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________________ अनेकान्तवाद और नेतृत्व 437 सार्वभौम सत्य है कि जो अनुशासन में रहना जानता है वही अच्छा अनुशास्ता बन सकता है- आगम व्याख्या साहित्य में यही सत्य उजागर हुआ है - सीसस्स हुंति सीसा णत्थि सीसा असीसस्स।। आज समाज शास्त्रियों ने नेतृत्व की अनेक कसौटियां निर्धारित की हैं। जैन, बौद्ध, और वैदिक साहित्य में भी अनुशास्ता की अनेक विशेषताओं का उल्लेख मिलता है पर आज हमें चिन्तन करना है कि नेतृत्व/अनुशास्ता में यदि अनेकान्त के कुछ पहलू जोड़ दिए जाय तो वह कितना प्रभावी हो सकता है - अनेकान्त के मुख्य घटक निम्न हैं - १. समन्वय २. सह-अस्तित्व ३. आत्मौपम्य वृत्ति ४. संभावनाओं की स्वीकृति ५. सापेक्षता ६. समता ७. उदारता/सहिष्णुता यदि इन घटकों को अनुशासन में संयुक्त कर दिया जाए तो वह जीवन और हृदयग्राही बन सकता है। समन्वय आगम साहित्य में अनुशासन के दो रूप मिलते हैं - सारणा और वारणा, जिसे आज की भाषा में प्रोत्साहन और दंड कह सकते हैं। यद्यपि ये विरोधी से दिखाई देने वाले तत्त्व हैं पर अनुशास्ता यदि इन दोनों का सम्यक् प्रयोग नहीं जानता तो असफल हो जाता है। जिस संगठन में नेता उचित कार्य या विशिष्ट कार्य संपादित करने वालों को प्रोत्साहन नहीं देता वहां संगठन गतिहीन और निष्क्रिय बन जाता है तथा अकृत्य करने वाले पर अंगुलिनिर्देश नहीं होता तो संगठन दोषों का आकर बनकर रह जाता है। अत: मृदुता और कठोरता की व्यावृत्ति अनेकान्तदृष्टि द्वारा ही संभव है। अन्यथा जहां केवल निरंकुशता या कठोरता होती है वहां समूह टूट जाता है और जहां केवल ढील होती है, वहां गलती का प्रतिकार नहीं हो सकता। अत: अनेकान्तदृष्टि अनुशास्ता को यह आलोक प्रदान करती है कि कब और कहां कहा जाये तथा कब और कहां सहा जाये। सर्वत्र कहा ही जाए तो धागा टूट जाता है और सर्वत्र सहा ही जाए तो डोर हाथ से छूट जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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