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________________ 426 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda उसके एक अंग का नाश हआ, पर सर्वनाश नहीं हुआ, क्योंकि उसमें मूलगुण जो मिट्टी का है वह तो मौजूद है। इसलिए एक देश होते हुए भी घड़ा सर्वदेश (अनेक गुणधर्मोवाला) हुआ। जैन दर्शन में वस्तु-स्वरूप का ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा होता है (प्रमाण नयैराधिगम: । व्यक्ति अपनी बुद्धि और दृष्टिकोण के अनुसार एक या अनेक तत्त्वों या पदार्थों का विवेचन करता है, लेकिन वह संपूर्ण स्वीकार तब होगा, जब उसके सभी पहलुओं पर विचार किया जायेगा। वस्तु के यथार्थ दर्शन के लिए अनेकान्त चिन्तन है, अनेकान्तवाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है, परन्तु वस्तु का सर्वथा ज्ञान सम्पादन करने का बुद्धिगम्य प्रयत्न है। ('एको भाव: सर्वथा येन दृष्टाः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा:। अनेकान्तवाद विज्ञान और तर्क की आधारशिला पर आधारित है। इस विषय में विद्वान् तत्त्वज्ञानी डॉ० यदुनाथ मिश्र लिखते हैं, "The Jain Contributions to logic areunique. RelativePluralism (अनेकान्तवाद), the doctrine of standpoints (vemeJeeo), Relativity of judgements (PIETC) and seven fold predication (सप्तभंगीनय) are special contribution of the Jain logic. The Jain attitude to the world is scientific and positivistic, Jainism stresses a middle course between absolutism and radical pluralism."9 __ जैन दर्शन में अनेकान्त की स्थापना कुछ ऐसी है कि ऊपरी तौर से देखने से भ्रम उत्पन्न होता है। कोई वस्तु है भी' और 'नहीं भी' है। यह कथन अन्य दर्शनकारों को हृदयंगम नहीं होता। लेकिन यदि उसी पदार्थ के स्वरूप के बारे में गहराई से सोचते हैं तो बाहरी विरोधाभास समाप्त हो जाता है। क्योंकि वस्तु को अनेकान्तात्मक मानने का यह अर्थ नहीं है कि जल को अग्नि माने या उसमें अग्नित्व का गुण जबरन थोप दिया जाए। इससे तो वस्तु का यथार्थ स्वरूप सत्य से बहुत दूर चला जाएगा। वस्तु का स्वरूप जैसा है, उसको उसी रूप में ठीक तरह से जानने का साधन अनेकान्त है। अनेकान्त वस्तु के यथार्थ दर्शन के लिए, उसके सभी गुणधर्मों को समझाने वाला सिद्धान्त है। उसकी मानसिकता सब तरफ से खली है, कोई भी द्वार बन्द नहीं है। वह तटस्थ दृष्टि से सभी रूप से अप्रतिबद्ध रहकर चिन्तन करने की प्रेरणा देता है। इसी लिए वह अनेक विचारों में समन्वय एवं सामंजस्य को स्थापित करते हुए यथार्थ के निकट पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है। परस्पर विरुद्ध धर्मवान् होना अनेकान्तवाद ही है। वैशेषिक दर्शन का भी यह सिद्धान्त है कि एक ही पट के विभिन्न भाग में चलत्व, अचलत्व, रक्तत्व, अरक्तत्व, आनावृत्तत्व आदि अनेक विरुद्ध धर्मों के उपलब्ध होने पर भी विरोध नहीं माना जाता। यह भी अनेकान्त दृष्टि की ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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