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________________ अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण 395 अभेद मानने पर गुण-गुणी व्यवहार नहीं हो सकता। गुण यदि गुणी से सर्वथा भिन्न है तो अमुक गुण का अमुक गुणी से ही सम्बन्ध कैसे नियत किया जा सकता है? अवयवी यदि अवयवों से सर्वथा भिन्न है तो एक अवयवी अपने अवयवों में सर्वात्मना रहेगा या एकदेश से? पूर्ण रूप से तो जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी मानने होंगे। यदि एकदेश से; तो जितने अवयव हैं उतने प्रदेश उस अवयवी के स्वीकार करने होंगे। इस तरह अनेक दूषण सर्वथा भेद और अभेद पक्ष में आते हैं, अत: तत्त्व को कथंचित् भेदाभेदात्मक मानना चाहिए। जो द्रव्य है, वही अभेद है और जो गुण और पर्याय हैं, वही भेद है। दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में जिस प्रकार अभेद काल्पनिक है, उसी तरह एक द्रव्य का अपने गुण और पर्यायों से भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझाने के लिए है। गुण और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, जो इनमें रहता हो। अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है सामान्य अंश के प्रत्यक्ष, विशेष अंश के अप्रत्यक्ष और विशेष की स्मृति होने से संशय होता है, जैसे स्थाणु तथा पुरुष की स्थिति के योग्य देश में और न अति प्रकाश, न अति अन्धकार सहित बेला ऊर्ध्वतासामान्य के देखने वाले और स्थाण में रहने वाले वक्रकोटर तथा पक्षियों के घोंसले आदि विशेषों को तथा पुरुषनिष्ठ वस्त्रधारण तथा हस्तपाद आदि विशेषों को न देखने वाले मनुष्य को स्थाणु पुरुष के विशेषों के स्मरण से यह स्थाणु है या पुरुष है ऐसा संशयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। अनेकान्तवाद में तो विशेष धर्मों की उपलब्धि निर्बाध ही है। क्योंकि स्वरूप, पररूप विशेषों की उपलब्धि प्रत्येक पदार्थ में है। इसलिए विशेष की उपलब्धि से अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है१६। सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम प्रमाण से अविरुद्ध एक वस्तु में अनेक धर्मों के निरूपण करने में जो तत्पर है, वह सम्यक् अनेकान्त है तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध जो एक वस्तु में अनेक धर्मों की कल्पना करता है, वह मिथ्या अनेकान्त है। सम्यक् अनेकान्त प्रमाण और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है। सह अनेकान्त और क्रम अनेकान्त आचार्य गृद्धपिच्छ ने द्रव्य का लक्षण गुण और पर्याय युक्त प्रतिपादित किया है। यही लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया है। इस पर शङ्का की गई कि गुण संज्ञा तो इतर दार्शनिकों (वैशेषिकों) की है, जैनों की नहीं। उनके यहाँ तो द्रव्य और पर्याय रूप ही वस्तु वर्णित है और इसी से उनके ग्राहक द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दो नयों का उपदेश है। यदि गुण भी उनके यहाँ मान्य हो तो उसको ग्रहण करने के लिए एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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