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________________ अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण 387 की दृष्टि से स्वपर्याय तो बन सकती है, परपर्याय नहीं। यद्यपि अलोकाकाश में घड़ा नहीं रहता, अत: अलोकाकाश को परपर्याय कह सकते हैं, परन्तु चाहने पर भी अलोक में घड़ा कभी भी नहीं रह सकता, वह सर्वदा लोक में ही रहता है, अत: उस रूप से परपर्याय की विवक्षा नहीं की है। यदि विवक्षा की जाय तो फिर घड़ा आकाश में रहता है, इस रूप में जब आकाश स्वपर्याय होगी तब परपर्याय कुछ भी नहीं होगी। त्रिलोकवर्ती घड़ा भी मध्यलोक में रहता है, स्वर्ग या नरक में नहीं, अतः मध्यलोक की दृष्टि से सत् है तथा ऊर्ध्व और अधोलोक की दृष्टि से असत्। मध्यलोकवर्ती होकर भी घड़ा जम्बूद्वीप में रहता है, अत: जम्बूद्वीप की दृष्टि से सत् तथा अन्य द्वीपों की दृष्टि से असत् है। जम्बूद्वीप में भी वह भरतक्षेत्र में रहता है, विदेह आदि क्षेत्रों में नहीं, अत: भरतक्षेत्र की दृष्टि से सत् है तथा विदेह आदि की दृष्टि से असत् आदि-आदि। जिनकी अपेक्षा अस्तित्व का विचार किया जाता है, वे स्वपर्यायें थोड़ी हैं तथा जिनकी अपेक्षा नास्तित्व का विचार होता है, वे परपर्यायें तो असंख्य हैं; क्योंकि लोक के प्रदेश असंख्य होते हैं। भाव की दृष्टि से घड़ा पीला है, अत: पीले रंग की अपेक्षा सत् है तथा अन्य नीले लाल आदि रंगों से असत्। घड़े का वह पीलापन किसी पीले द्रव्य से दुगुना पीला है, किसी से तिगुना, किसी से चौगुना, इस तरह किसी से अत्यन्त कम पीले द्रव्य से अनन्तगुना पीला भी होगा। इसी तरह घड़े का वह पीलापन किसी से एक गुना कम पीला है, किसी से दो गुना कम पीला है, किसी से तीन गुना कम। इस तरह किसी परिपूर्ण पीले द्रव्य से अनन्तगुणा कम पीला भी तो है। तात्पर्य यह कि तरतम रूप से पीलेपन के ही अनन्त भेद हो सकते हैं, वे सब उसकी स्वपर्यायें हैं तथा पीलेपन की ही तरह नीले और लाल आदि रंग भी रूप से अनन्त प्रकार के होते हैं, उन सब अनन्त नीलादि रंगों से इस घड़े का पीलापन पृथक् है, अत: परपर्यायें भी अनन्त ही हैं। इसी तरह उस घड़े का अपना जो मीठा आदि रस होगा, उसके भी रूप की ही तरह तरतम रूप से अनन्त भेद होंगे। ये सभी उसकी स्वपर्यायें हैं तथा नील आदि पररूपों की तरह खारे आदि पर रस भी रूप से अनन्त हैं, उन सबसे इसका रस व्यावृत्त होता है, अतः परपर्यायें भी अनन्त हैं। इसी तरह उसकी सुगन्ध के तरतम रूप से अनन्त ही भेद होंगे जो कि उसकी स्वपर्यायें कहे जायेंगे तथा जो गन्ध उसमें नहीं पायी जाती, उसके अनन्तभेद परपर्याय होंगे। इसी तरह भारी, हल्का, कोमल, खुरदुरा, ठंडा, गरम, चिकना और रूखा इन आठ स्पर्शों के भी प्रत्येक के तरतम रूप से अनन्त भेद होते हैं। इनमें जो स्पर्श जिस रूप से उसमें पायें जाते हैं, उनकी अपेक्षा अनन्त स्वपर्यायें तथा जो स्पर्श नहीं पाए जाते, उसकी अपेक्षा अनन्त ही परपर्यायें समझ लेनी चाहिए। सिद्धान्त में स्पष्ट कहा है कि - एक अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध में भारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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