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________________ 356 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्मों से युक्त रहना वस्तु का स्वभाव या स्वरूप है अर्थात् वस्तु में स्वचतुष्टय का भाव और परचतुष्टय का अभाव होता है। अत: इन धर्मों को एक दूसरे का निषेधक व्याघातक (Contradictory) नहीं कहा जा सकता है। किन्तु जब इन भावात्मक और अभावात्मक धर्मों के कहने की बात आती है, तब हम स्वचतुष्टय रूप वस्तु के भावात्मक गुण धर्मों को एक शब्द ‘स्यादस्ति' से कह देते हैं और जब परचतुष्टय रूप वस्तु के अभावात्मक गुण धर्मों को कहने की बात आती है, तब उन्हें 'स्यान्नास्ति' शब्द से सम्बोधित करते हैं। किन्तु जब उन्हीं धर्मों को एक साथ (युगपत् रूप से कहना होता है, तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना पड़ता है। वस्तुतः अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये ही सप्तभंगी के तीन मूल भंग हैं। अब वस्तु में स्वचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को A, परचतुष्टय रूप धर्मों को B और उनके अभाव को ~B तथा स्वचतुष्टय और परचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को युगपत् रूप से कहने में भाषा की असमर्थता अर्थात् अवक्तव्यता को ~C से प्रदर्शित करें और स्यात् पद को P से दर्शायें तो तीन मूल भंगों का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा - स्यादस्ति = P (A) स्यान्नास्ति = P (~B) स्यादवक्तव्य = P (~C) इस प्रकार प्रथम भंग में स्वचतुष्टय का सद्भाव होने से उसे भावात्मक रूप में A कहा गया है। दूसरे भंग में पर चतुष्टय का निषेध होने से अभावात्मक रूप में ~B कहा गया है और तीसरे मूलभंग में वक्तव्यता का निषेध होने से ~ C कहा गया है। इस प्रकार सप्तभंग के प्रतीकीकरण के इस प्रयास का अर्थ उसके मूल अर्थ के निकट बैठता है। अब विचारणीय विषय यह है कि स्यानास्ति भंग का वास्तविक प्रारूप क्या है? कुछ तर्कविदों ने उसे निषेधात्मक बताया है तो कुछ दार्शनिकों ने स्वीकारात्मक माना है और किसी-किसी ने तो द्विधा निषेध से प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में मेरे गुरुदेव प्रोफेसर सागरमल जैन के द्वारा प्रदत्त नास्ति भंग का प्रतीकात्मक प्रारूप द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है कि नास्ति भंग के निम्नलिखित चार प्रारूप बनते हैं (१) अरे ) उ. वि नहीं है, (२) अरे ) उ. ~ वि हैं, (३) अ ) उ. ~ वि, नहीं है (यह द्विधा निषेध का रूप है।) (४) अ ) उ, नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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