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________________ 334 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda चातुर्य से अच्छा व्यापार करूं ढेर सारी सम्पत्ति बटोर लूं आदि हैं विकल्प के धूम्र-वलय! संकल्पदीप में से प्राय: विकल्प का धुंआ फैलता ही रहता है। वह कम नजर आता है और अधिक पाने की तृष्णावश वश नानाविध हरकतें करता रहता है। रहने के लिए एक घर है, लेकिन कम लगेगा और दूसरा पाने की स्पृहा जगेगी। धनधान्यादि संपत्ति से भरपूर होने पर भी उससे अधिक पाने का ममत्व पैदा होगा अर्थात, जो उसको मिला है, उससे संतोष नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं, और समाधान भी नहीं। फलत: उसका सारा जीवन शोक-संताप और अतृप्ति की आग में नष्ट हो जाएगा। आज तक विषयवासना, मोह-लोभ और परित्रह... सब कुछ प्राप्त करने की ललक में सदा-सर्वदा खोये रहे। लेकिन क्या मिला? अपार अशान्ति, तनाव, संताप, क्लेश और कलह, साथ में उद्वेग और उदासीनता। हम इतने प्रभावों से प्रभावित हैं कि अप्रभावित अवस्था हमें शायद प्राप्त नहीं है। इस स्थिति में मानसिक शान्ति की समस्या और जटिल बन जाती है। क्या अप्रभावित रहा जा सकता है? बहुत कठिन समस्या है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। कोई व्यक्ति केवल वैयक्तिक जीवन नहीं जीता। भाषा सभ्यता, संस्कृति, विकास, संस्कार सब कुछ समाज के सन्दर्भ में होता है। अकेले में किसी का विकास नहीं होता। व्यक्ति ऐसा ही बनता है जैसा उसका वातावरण होता है। इस स्थिति में व्यक्ति की मानसिक समस्या का समापन कैसे खोज सकते हैं? समाधान तो पूरे समाज का हिस्सा है। किन्तु व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता भी है उसे कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। आखिर में व्यक्तिओं के समूह से समाज का निर्माण होता है। इसलिए व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी हमें विचार करना होगा। एक ओर हम वातावरण से, परिस्थितियों से, हेतुओं से, निमित्तों से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर विचार करें तो दूसरी ओर व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर भी विचार करें। यहीं अध्यात्म का और भौतिक विज्ञान का एक केन्द्र बिन्दु बनता है- Man Unknown। उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से इतना सारा विश्लेषण किया गया है कि उसके मस्तिष्क का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा अज्ञात ही है। ज्ञान बहुत छोटा सा बिन्दु है। किन्तु अज्ञान तो पूरा का पूरा समुद्र ही है। अध्यात्म के आचार्यों ने अज्ञान पर भी बहुत शोध किया और अनुभूति के बाद घोषणा की कि भीतर इतने बड़े महासागर लहरा रहे हैं जिनकी वर्तमान भूमि पर मिलने वाले किसी भी महासागर से तुलना नहीं की जा सकती। हमारे भीतर तो चार अनन्त महासागर, जिनकी कोई सीमा नहीं, लहरा रहे हैं। उनकी उत्ताल ऊर्मियाँ उछल रहीं हैं। किन्तु इस अनन्त चतुष्टयी ('अनन्त ज्ञान' अनन्त दर्शन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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