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________________ 318 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda खींचतान करके ले जाना चाहता है जहां पहले से उसकी बुद्धि जमी हुई है, मगर पक्षपात से रहित मध्यस्थ पुरुष अपनी बुद्धि का निवेश वहीं करता है जहां युक्तियां उसे ले जाती हैं।" अनेकान्तवाद दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति-सिद्ध वस्तु स्वरूप को ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करना चाहिए । बुद्धि का यही वास्तविक फल है। जो एकान्त के प्रति आग्रहशील है और दूसरे सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है वह तत्त्वरूपी नवनीत नहीं पा सकता'। जैन दर्शन क्योंकि अनेकान्तदर्शन है और अनेकान्तदर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का यथार्थबोध प्रमाण और नय से ही किया जा सकता है। प्रमाण का अर्थ है जिसके द्वारा पदार्थ का सम्यक् परिज्ञान हो। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण का लक्षण है “स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानम् प्रमाणम् “अर्थात् स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है। जैन दर्शन उसी ज्ञान को प्रमाण मानता है जो अपने आपको भी जाने और अपने से भिन्न पर पदार्थों को भी जाने और वह भी निश्चयात्मक एवं यथार्थ रूप में। प्रमाण वाक्य सकलादेश है, क्योंकि उससे समग्र धर्मात्मक वस्तु का प्रधान रूप से बोध होता है। अनेकान्तवाद का आधार सप्तनय है। प्रमाण से गृहीत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी भी एक धर्म का मुख्य रूप से ज्ञान होना नय है। किसी एक ही वस्त के विषय में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण ही नय हैं। परस्पर विरुद्ध दिखने वाले विचारों के मूल कारणों का शोध करते हुए उन सबका समन्वय करने वाला वाद नयवाद है नय विकलादेश है, क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है। यह विभिन्न एकांकी दृष्टियों में सुन्दर एवं साधार समन्वय स्थापित करता है। आचार्य ध्रुव ने ठीक ही कहा है कि स्याद्वाद एक वाद नहीं अपितु दृष्टि है। सर्ववादों को देखने के लिए यह अंजन है अथवा यों कहिए कि चश्मा है । उन्होंने यह भी कहा है कि स्याद्वाद एक प्रकार की बौद्धिक अहिंसा है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारिक शक्ति और व्यापक प्रभाव को हृदयंगम करके डॉ० हर्मन जैकोबी ने कहा था- "स्याद्वाद से सब सत्य विचारों का द्वारा खुल जाता है।” श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी कहा है - जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडई । तस्य भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स१० ।। जिसके बिना लोक व्यवहार भी सर्वथा नहीं चलता, उस भुवन के श्रेष्ठ गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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