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________________ अनेकान्तवाद की उपयोगिता 303 देशकालगत परिस्थितियों और साधक के साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों में भिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। किन्तु मनुष्य को अपने धर्माचार्यों के प्रति ममता (रागात्मकता) और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एकमात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और उनके बीच सांप्रदायिक वैमनस्य का प्रारंभ हुआ। यह स्पष्ट है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। पर आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार नृशंसता और रक्तप्लावन को धर्म का कारण कहा गया। आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का एक कारण यह भी है। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित होती है, किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं। __ अनेकांत विचार दृष्टि विभिन्न धर्म संप्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचिभेद एवं क्षमताभेद तथा देश-काल गत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं संप्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक संप्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं अपितु अशांति और संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है। लेकिन इसके लिये प्राथमिक आवश्यकता है, धार्मिक सहिष्णुता और धर्म समभाव की। अनेकांत के समर्थक आचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय में बुद्ध के अनात्मवाद, न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदांत के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रंथ लोकतत्त्वसंग्रह में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं “पक्षपातो न में वीरो न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।।'५९ अर्थात्, मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिल आदि मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए। ___ इसी प्रकार आचार्य हेमचंद्र ने शिव प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुए कहा था - "भवबीजांकुरजनना, रागाद्या वा क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ, जिनो वा नमस्तस्मै ।।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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