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________________ अनेकान्तवाद की उपयोगिता absence of the absolute this synthesis is an impossibility for Jainism...... 952 जिस तरह से जैन दर्शन में प्रत्येक निर्णय या - "नय" के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग करना आवश्यक बताया जाता है। इसी प्रकार प्राचीन ग्रीक दार्शनिक पिरो ने प्रत्येक वाक्य को संदेहपूर्ण अवस्था में रखने के लिये "शायद " (May be) शब्द का प्रयोग बहुत ही आवश्यक समझा था" ५ ३ स्याद्वाद में जो 'स्यात्' शब्द है वह क्रियास्पद नहीं है और उसका अर्थ 'यह नहीं है'- ऐसा भी संभव हैं। वस्तुत: यहाँ 'स्यात्' शब्द अव्यय है जिसका अर्थ है किसी प्रकार (कथंचित्) । अतः स्यादस्ति का अर्थ है वस्तु का किसी अपेक्षा से अस्तित्व है। इसी प्रकार " स्यान्नास्ति" का अर्थ है वस्तु का किसी अपेक्षा से अस्तित्व नहीं भी है। एक ही वस्तु में दृष्टि भेद या अवस्था भेद के अनुसार भाव या अभाव का निर्णय किया जा सकता है। अतः स्याद्वाद या अनेकांतवाद संशयवाद नहीं है और न यह अज्ञानवाद ही है। वस्तुत: यह वाद वस्तु के स्वरूप का निश्चयात्मक रूप में ही विवेचन करता है और साथ ही विभिन्न आचार्यों के विरोधी वादों का अनेकांत दृष्टि से समन्वय भी करता है । " ५४ समन्वयवादी अनेकांत दर्शन की महत्ता 299 अनेकांतवाद जैन दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान की सारी इमारतें, इसी अनेकांतवाद के सिद्धांत पर अवलंबित हैं। वास्तव में अनेकांतवाद - स्याद्वाद को जैन दर्शन का प्राण समझना चाहिए। जैन दर्शन में जब भी, जो भी बात कही गई है, वह अनेकांत की कसौटी पर अच्छी तरह जाँच-परख कर ही कही गई है। यही कारण है कि दार्शनिक साहित्य में जैन दर्शन का दूसरा नाम अनेकांत-दर्शन भी है। अनेकांतवाद का अर्थ है- प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से विचार करना, देखना या कहना। अनेकांतवाद का यदि एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें तो उसे अपेक्षावाद कह सकते हैं। जैन धर्म में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ के अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न धर्मों को कथन करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना गया है। यह पद्धति ही अनेकांतवाद है । अनेकांतवाद के ही अपेक्षावाद, कथंचिद्वाद और स्याद्वाद आदि नामान्तर हैं । "५५ अनेकांतवाद का सिद्धांत तत्त्व विवेचन में ही सहायक नहीं है, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता है । इसका व्यावहारिक, दार्शनिक, राजनैतिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व है। स्याद्वाद का लक्ष्य- एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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