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________________ अनेकान्तवाद की उपयोगिता समझना चाहिए कि पूर्ण सत्य अज्ञेय है, वह ज्ञेय है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किए उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता है । आइन्स्टीन ने इससे एक कदम आगे बढ़कर कहा है कि - " We can only know the relative truth, the real truth is known only to the universal observer.26 अर्थात् हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा। “क्योंकि वस्तु तत्त्व मात्र उतना ही नहीं है जितना कि हम ग्रहण कर पा रहे हैं। हमारी ऐन्द्रिक ज्ञान, शक्ति एवं तर्कबुद्धि इतनी सीमित एवं अपूर्ण है कि वह वस्तुतत्त्व को संपूर्णरूप से ग्रहण भी नहीं कर सकती। यदि किसी प्रकार उसका अपनी सम्पूर्णता में ग्रहण हो जाय तो भी वाणी के द्वारा उसका संपूर्ण रूप से प्रकाशन असंभव ही है । वस्तुतः अपने वचन व्यापार बनाने एवं अपने और दूसरों के अनुभूत तथा अननुभूत सत्यों का निषेध न करने के लिये किसी न किसी कथन पद्धति की योजना करनी ही होगी जो कथन में अप्रयोजित सत्यों का निराकरण न करते हुए अपनी बात को स्पष्ट कर सके । इस कार्य के लिए जैन आचार्यों ने " स्यात् " शब्द की योजना की । ३. भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता जैन आचार्यों की दृष्टि से सर्वज्ञ, जिसे सत्य का साक्षात्कार हो जाता है, उनके लिये भी सत्य का निरपेक्ष प्रकथन असंभव है, अभिव्यक्तिकरण असंभव है। उसकी अभिव्यक्ति का जब कभी भी कोई प्रयास किया जाता है तो वह सापेक्षिक बन जाता है। क्योंकि भाषा का कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्ण रूप को स्पर्श कर सके। हर एक शब्द एक निश्चित गुण-धर्म के लिये ही प्रयुक्त होता है। इतना ही नहीं, वस्तु तत्त्व में कितने ऐसे भी धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिये भाषा के पास कोई शब्द नहीं है, अर्थात् वस्तु तत्त्व के अनेक ऐसे धर्म हैं जो अनुक्त ही रह जाते हैं। उदाहरणार्थ- गुड़ की मिठास, चीनी की मिठास, आम, अमरूद आदि फलों की मिठास को मीठा शब्द से ही संबोधित करते हैं। जबकि हर एक की मिठास एक दूसरे से भिन्न है। वस्तुतः प्रत्येक विशिष्ट प्रकार की मिठास के प्रकाशन के लिये भाषा में भिन्न-भिन्न शब्द होने चाहिये किंतु ऐसा है नहीं । " १२७ 289 'स्यात्' शब्द की उपर्युक्त व्याख्या इस बात को स्पष्ट करती है कि " स्यात्” शब्द जिस धर्म के साथ प्रयुक्त होता है, उसकी स्थिति कमजोर न करके वस्तु में रहने वाले प्रतिपक्षी धर्म की सूचना देता है । " २८ जैन दर्शन के प्रबुद्ध आचार्यों का कथन है कि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवती है। अनेकांतवाद, वस्तुओं में अवस्थित विभिन्न धर्मों का सूचक है, और स्याद्वाद उनको अभिव्यक्त करने की भाषायी पद्धति है। वस्तुतः अनेकांतवाद की भाषायी अभिव्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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