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________________ 264 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda धर्मों का संसूचक भी माना है। 'स्यात्' तर्क/युक्ति का द्योतक है और 'वाद' अभिप्रेत धर्मवचन का कारण है। "अनेकधर्म स्वभावस्य जीवादेः कथनं स्याद्वाद:१०५।'' अर्थात् जीवादि पदार्थों के अनेक धर्म रूप स्वभाव का कथन/प्रतिपादन करने वाला ‘स्याद्वाद है। अनेकान्तात्मकत्व निरूपणं स्याद्वाद ‘स्याद्वाद' अनेकान्तात्मक वस्तु का ही निरूपण करता है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। जितने भी वचन-व्यवहार हैं, उतने ही वस्तु के धर्म हैं। वस्तु अपने धर्म को छोड़कर अन्य रूप में परिवर्तित नहीं होती है, जो वस्तु का यथार्थ धर्म है, वही उस वस्तु का अस्तित्व है और उसी पर वस्तु टिकी हुई है। वस्तु ज्ञान के जो भी उपाय हो सकते हैं, उस उपाय से वस्तु के अनन्तधर्मात्मक अखण्ड स्वरूप तक पहुंचना लक्ष्य होता है। शब्द वस्तु के अर्थ का सही-सही जो मूल्याकंन कर सके वही 'स्याद्वाद' में ग्राह्य है। अनेकान्त के अर्थ में अनेक धर्मों का द्योतन होता है। 'स्याद्वाद' विराट दृष्टि है, जिसमें वस्तु के जानने के लिए विविध विकल्प हैं। सर्वथा एकान्त का त्याग-स्याद्वादः ‘स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् १०६” सर्वथा एकान्त के त्याग से ही 'स्याद्वाद' प्रकट होता है कथंचित्, किंचित्, किसी अपेक्षा, कोई एक दृष्टि और कोई धर्म की प्रधानता बतलाने वाला ‘स्याद्वाद' है । यह सर्वथा एकान्त की पुष्टि नहीं करता है अपितु यह अपेक्षा से युक्त वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है। यह वस्तु में विवक्षित धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के सद्भाव की भी सूचना देता है। नियम का निषेध करना और सापेक्षता की सिद्धि करना 'स्याद्वाद' का प्रयोजन है इसके बिना विसंवाद की संभावना बनी रहती है। सर्वतत्त्व प्रकाशन स्याद्वाद स्याद्वाद्केवलज्ञाने सर्वतत्त्व प्रकाशने । भेद: साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् १०७।। आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान की तरह सर्वतत्त्व का प्रकाशन वाला कहते हए यह प्रतिपादित किया है कि यह प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष और परोक्ष, साक्षात्-असाक्षात् जानने वाला है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य रूप स्याद्वाद नहीं है। केवल ज्ञानी की भांति स्याद्वाद् सिद्धान्त भी मूर्त या अमूर्त रूप या जितने भी वस्तु के धर्म हैं, उन सभी पर अपनी दृष्टि करता है, उसे अपनी अनुभूति का विषय बनाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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