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________________ अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण 261 २. स्थापना निक्षेप (वस्तु का आकार) "वस्तुत: कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता।" वस्तु की कृत संज्ञा की प्रतिष्ठा स्थापना है। अर्थात् वस्तु के साकार और अनाकार रूप में वास्तविक धर्मों का अध्यारोपण स्थापना निक्षेप है। स्थापना साकार, अनाकार, सद्भाव या असद्भाव रूप में की जाती है। वास्तविक रूप में जहाँ काष्ठकर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और अक्षकर्म आदि से ‘यह वह है' ऐसा आरोपण किया जाता है वहाँ स्थापना निक्षेप होता है जैसे- मूर्ति में इन्द्र का आरोपण। ३. द्रव्यनिक्षेप (वस्तु के भूत-भावी पर्याय का आरोपण) __ आगामी वस्तु की योग्यतावाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं, जो उस समय, उस पर्याय के अभिमुख हो। जैसे जिनेन्द्र प्रतिमा के लिए लाए गए पत्थर को भी जिनेन्द्र प्रतिमा कहना। द्रव्य निक्षेप-(i) आगम और (ii) नो आगम रूप में है । नो आगम में ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त रूप है। यह भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल को विषय बनाता है। 'तदेव प्राप्यन्ते प्राप्नुवन्ति वा द्रव्याणि ।।" जो प्राप्त किए जाएं या प्राप्त होते हैं वे द्रव्य हैं और जो द्रव्य के रूप में आरोपण किए जाये वह द्रव्य निक्षेप है। ४. भावनिक्षेप (वस्तु का वर्तमान आरोपण) __जो द्रव्य का परिणाम है तथा जो पूर्वापर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को विषय करता है उसे भावनिक्षेप कहते हैं। भावनिक्षेप आगम और नो आगम रूप है। जैसे जिनेन्द्र की भक्ति अर्हन्त भाव उसे आगम निक्षेप है और अर्हत् स्तुति नो आगम भाव निक्षेप है। यथार्थ में वस्तु की संज्ञा नाम निक्षेप है, उसका आकार स्थापना निक्षेप है, कारण द्रव्यनिक्षेप है और कार्यरूप वस्तु का होना भावनिक्षेप है। यद्यपि नाम और स्थापना दोनों में संज्ञा है, क्योंकि बिना संज्ञा के नाम नहीं हो सकता है, फिर भी स्थापित संज्ञाविशेष अर्हत् स्तुति योग्य है। ‘महावीर' नाम का व्यक्ति संज्ञा अवश्य है, पर स्थापना के रूप को प्राप्त नहीं हो सकता है, इसलिए 'नाम' मात्र उसकी संज्ञा है। ‘णामिणि धम्मुवयारो ठाम ठवणा य जस्स तं धविदं । तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम ठवणाणामविसेसं१०।। नाम में धर्म का उपचार करना नाम निक्षेप है और धर्म की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है। इसी तरह द्रव्य और भाव में है। द्रव्य तो भाव अवश्य होगा, परन्तु भाव द्रव्य हो न भी हो । आचार्य सिद्धसेन ने निक्षेप में नय की स्थापना इस प्रकार की है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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