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________________ 248 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda (ग) निर्विकल्प तत्त्व शुद्ध निश्चयनय में विभाव एवं स्वभाव के स्थान नहीं होते हैं, हर्षभाव और अहर्ष भाव भी नहीं होते हैं। अशुद्ध निश्चय नय - ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य । तेहुंति भावपाणा असुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा ६५ ।। "कम्मज - भावेणादा कत्ता भोत्ता द णिच्छयदो ६४ ।” अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा कर्म जनित राग, द्वेष, मोहादि भाव कर्म का कर्त्ता और भोक्ता है । द्रव्य कर्म और भावकर्म दोनों एक नहीं, भिन्न-भिन्न हैं । इस भेद विवक्षा से ही - “रागादिभावकर्माणां चाशुद्धनिश्चयेन ।” रागादि भाव कर्मों का कर्त्तापन अशुद्ध निश्चयनय की संज्ञा है । मान, Jain Education International अपमान, जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्ध निश्चय से मानना चाहिए। अशुद्ध निश्चयनय से जीव समस्त मोह, राग, द्वेष आदि भावकर्मों का कर्त्ता है तथा उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए कारण हर्ष, दुःख, सुख आदि का भोक्ता है। भगवान के केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों का स्मरण रूप जो भाव नमस्कार है वह अशुद्ध निश्चयनय का कारण है। क्योंकि अशुद्ध निश्चय नय सोपाधिक गुण या गुणी में अभेद दर्शाने वाला है। जैसे मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण हैं। सोपाधिक गुण स्फटिक मणि की भाँति विकल्पों तथा उपाधि से युक्त होते हैं । कर्मोपाधि- समुत्पन्नत्वादशुद्धः । कर्मोपाधि से उत्पन्न होने के कारण अशुद्ध हैं और अपने काल में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्म होने से निश्चय कहा जाता है। शुद्धनिश्चय हो या अशुद्ध निश्चयनय अनेकान्त में तो वस्तु का स्वरूप होना चाहिए। हाथी है, वह क्या है, कैसा है, पक्ष विपक्ष से सिद्ध होना चाहिए। हाथी सींग से सिद्ध नहीं होगा, सूंड से ही होगा । व्यवहार नय "पडिरूवं पुण वयणत्थ - णिच्छओ तस्स ववहारो ६६ ।” वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहार है। विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है । गुण- गुणी में 'सत् ' रूप से अभेद होने पर भी भेद करना, अलग-अलग विषय का व्याख्यान करना व्यवहारनय का कार्य है। -६७ “वच्चइ विणिच्छयत्थं ववहारो सद्दव्वेसु" । " व्यवहार नय शब्द द्रव्यों में विभाग करते हुए अर्थ को ग्रहण करता है। यह नय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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