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________________ 242 Multi-dimensional Application of Anekantavāda ६. कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय भणइ अणिच्चसुद्धा चउगइ-जीवाण पज्जया जो हु । होई विभाव-अणिच्चो असुद्धओ पज्जयत्थि-णओ५१।। यह नय चार गतियों के जीवों को अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करता है। जीव की संसारी पर्याय अशुद्ध पर्याय है, क्योंकि उसके साथ कर्म जुड़े हुए हैं। इसलिए वह विभाव पर्याय रूप है।'' यथा संसारिणां उत्पत्ति-मरणे स्तः।" द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय सम्यक् एकान्तों के समूह का नाम अनेकान्त है, वही पूर्ण सत्य है, समीचीन है, वस्तु तत्त्व दर्शक है, पथप्रदर्शक है, आलोचक है, समालोचक है और वस्तु के भेद, विषय स्वरूप और नाम की परिपूर्णता का बोध कराने वाला है। ‘एयंतो एयणओ होई अणेयंत तस्स समूहो५२।'' एक नय एकान्त है और उसका समह अनेकान्त है यह तभी चरितार्थ हो सकता है, जब वस्तु स्वरूप के ज्ञान के लिए, वस्तु अर्थ के प्रतिपादन के लिए सभी पक्षों को आधार बनाकर विवेचन किया जाय । ___ 'द्रव्य रूप से प्रत्येक वस्तु नित्य है, पर्याय रूप से प्रत्येक वस्तु अनित्य है। इसी विवेचन के कारण नय के दो मूल भेद हमारे सामने आए- (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय का विषय वस्तु द्रव्यांश है और पर्यायार्थिक नय का विषय वस्तु का पर्यायांश है। यह दोनों परस्पर सापेक्ष होते हैं । कभी एक नय की दृष्टि मुख्य रहती है, तो दूसरे की गौण हो जाती है। दोनों की मुख्यता और गौणता के आधार पर ही वस्तु तत्त्व का विवेचन प्रस्तुत किया जाता है। दोनो नयों का विषय-सापेक्ष है पज्जवणिस्सामण्णं वयणं दव्वट्ठियस्स अत्थि त्ति । __ अवसेसो वयणविही, पज्जवभयणा सपडिवक्खो५३।। 'अत्थि' 'सत्' है यह वचन पर्यव नि:सामान्य/रहित द्रव्यार्थिक का वचन है, अवशेष/अवशिष्ट वचनविधि/कथन पद्धति “पर्यवभजना'/पर्यायार्थिक का विभाग सप्रतिपक्ष सापेक्ष है। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं । एक दूसरे की अपेक्षा करते हैं। गौणता/मुख्यता - जहाँ सामान्य की मुख्यता है, वहाँ विशेष की गौणता है। सत्ता सामान्य के विषय में जब तक पर्याय सम्बन्धी विकल्प एवं वचन व्यवहार नहीं उत्पन्न होता, तब तक पर्यायार्थिक नय से अतिक्रान्त वस्तु द्रव्यार्थिक नय का वचन-व्यवहार बना रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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