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________________ -73 भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एवं साहित्य शास्त्रीने सच ही कहा है : 'वसन्ततिलका अपरनाम मधुमाधवी नामक वर्णिक छंद में रचित सुष्ठुसंस्कृत के अड़तालीस पद्योवाले इस मनो मुग्धकारी स्तोत्ररत्न में परिष्कृत एवं सहजगम्य भाषा-प्रयोग, साहित्यिक सुषमा, रचना की चारुता, निर्दोष काव्यकला, उपयुक्त शब्दााकारों एवं अर्थालकारों की विच्छति दर्शनीय है, और अथ से अंत तक भक्तिरस अविच्छिन्नधारा अस्खलित गति से प्रवाहित है । ...अनावश्यक पांडित्य प्रदर्शन से स्तोत्र को बोझिल नहीं बनाया ।'1 पूरे स्तोत्र के पठन के पश्चात् कहीं भी वाणीविलास की विकृति या वाचालता नहीं। सर्वाधिक भाषा का गुण तो यह है कि वह भक्त के ऋजु एवं आराधना-भावों के अनुकूल और भावों की वाहिका बनकर प्रफुल्लित ही बनाती है। कवि ने पूरा स्तोत्र वसंततिलका छन्द में बिना किसी स्खलन के प्रस्तुत किया है। "तभजजगुगु" अर्थात् तगण, भगण, जगण, जगण एवं गुरु-गुरु के शास्त्रीय बंध का पूर्ण निर्वाह हुआ है। भाषा की लक्षणा एव व्यंजनाशक्ति का प्रयोग मनोहर ढंग से किया गया है। कवि ने आराध्य की महिमा का गुणगान और उनके अतिशयों के वर्णन में इन्हीं शक्तियों का प्रयोग हुआ है कवि का शब्दशिल्प अनूठा है। स्तोत्र का प्रत्येक शब्द अर्थ एवं भाव को सक्षमता से व्यक्त करने की शक्ति रखता है। वैसे प्रत्येक शब्द की विवेचना की जा सकती है पर यहां कुछ उदाहरण ही प्रस्तुत करके अपने कथन को पुष्ट करूँगा। कवि ने जहाँ अरिहंत की शक्ति, गुण और प्रभाव के सामने अपनी निबलता, वाचालता और उमंग की चर्चा की है वहाँ हर शब्द दोनों के भेद को स्पष्ट करते हैं। कवि ने जिनेन्द्रदेव के लिए जिन विशेषणों का या उपमानों का प्रयोग किया है वे इसी कोटि के प्रयोग हैं। 'जहाँ वे' भुवन 1. दे सक्षिप्त भक्तामर रहस्य', भूमिका, पृ.२६ से उदधृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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