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________________ 44 जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ इसलिये चिन्तामणि के समान धर्मरत्न को प्राप्त कर संसारबन्धन से छूटने का प्रयत्न करना चाहिये ।' ३. आदिनाथ शतक : 'आदिनाथ देशना शतक' नामक प्राकृत रचना का उल्लेख मिलता है। किन्तु आदिनाथ-शतक नामक किसी अन्य रचना अथवा पाण्डुलिपि की जानकारी नहीं है । उज्जैन के ग्रन्थ भण्डार से प्राप्त. प्राकृत का यह आदिनाथ शतक नया हो सकता है। इस आदिनाथ शतक की प्राकृत गाथाओं के उपर हिन्दी टिप्पण भी नहीं दिये गये हैं। इसका नाम आदिनाथ शतक क्यों दिया गया है, यह पाण्डुलिपि को पढ़ने से ज्ञात नहीं होता। क्योंकि इसमें आदिनाथ के जीवन की कोई घटना नहीं है। जैन धर्म का प्रवर्तक होने के नाते आदिनाथ का नाम शायद इसिलिये दिया गया है कि इस शतक में जो कहा गया है वह भी जैन धर्म का मूल उपदेश ही है। इस शतक में मनुष्यजन्म की दुर्लभता, कर्मों की प्रबलता एवं संसार की विचित्रता का वर्णन है । असरण भावना को जानकर शीघ्र धर्म करने की बात इसमें कही गयी है असरण मरं ति इदा--बलदेव-वासुदेव-चक्कहरा । ता एअं नाऊण करेहि धम्मु तुरियं ॥२१।। मनुष्यजन्म प्राप्त कर लेने पर भी धर्मबोधि का लाभ सभी को नहीं हो पाता है। कवि कहता है कि ७२ कलाओं में निपुण व्यक्ति भी स्वर्ण और रत्न को तो कसौटी में कसकर पहिचान लेगा, किन्तु धर्म को कसौटी में कसने में वह व्यक्ति भी चूक जाता है। यथा6. शास्त्री, नेमिचन्द्र : 'प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ३८७ 7. 'जैन ग्रन्थावलि', पृ० २०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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