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________________ जैन दर्शन में दिक् और काल की अवधारणा 25 स्मता छीन ली है। और यह , सिद्ध कर दिखाया है कि ये मी घटनाओं में भाग लेते हैं ।' तथा प्रसिद्ध वैज्ञानिक जिन्स का कथन है कि "हमारे दृश्य जगत की सारी क्रियाएँ मात्र फोटोन और द्रव्य अथवा मूल की क्रियाएँ है तथा इन क्रियाओं का एक मात्र मंच देश और काल है। इसी देश और काल ने दीवार बनकर हमें घेर रखा है।” अतः यह फलित होता है कि जैन दर्शन में वर्णित यह तथ्य के परिणमन और क्रिया काल के उपकार है, विज्ञान जगत में मान्य हो गया है। ... काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को कुछ आचार्यों ने व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति, क्षेत्र आदि के दो माध्यम स्थापित कर उनके सापेक्ष में समझाने का प्रयास किया है परन्तु विचारणीय यह है कि जब काल के वर्तना, परिणाम और क्रिया लक्षण स्वयं उसी पदार्थ में प्रकट होते हैं तो परत्व-अपरत्व लक्षण भी उसी पदार्थ में प्रकट होने चाहिये। इनके लिये भी एक सापेक्ष्य की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये । इस विषय पर विस्तारपूर्वक लिखना प्रस्तुत लेख का विषय नहीं है। लगता ऐसा है कि उस समय के व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष कोई ऐसा उदाहरण या विधि विद्यमान नहीं थी, जिससे वे काल के परिणाम, क्रिया आदि अन्य लक्षणों के समान परत्व-अपरत्व को भी स्वयं पदार्थ में ही प्रमाणित कर सकते। विज्ञान जगत में भी इसे आज भी केवल गणित के जटिल समीकरणों से ही समझा जा सकता है, व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा नहीं। पदार्थ की आयु की दीर्घता का अल्पता में, अल्पता का दीर्घता में परिणत. हो जाना 'परत्व-अपरत्व है। दूसरे शब्दों में पदार्थ की अपनी ही आयु का विस्तार और सन्कुचन परत्व-अपरत्व है। विश्व में चोटी के वैज्ञानिक, आइनस्टीन व लोरंटन ने समीकरणों से सिद्ध किया है. कि. गवि तारतम्य से पदार्थ की आयु में संकोचविस्तार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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