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________________ ३८२ जैन साहित्य समारोह चाहिए। निज शक्ति के अनुसार योगसाधना करनी चाहिए। आरा'धक को शास्त्रपठन, विधिपूर्वक के आचार और फिर योग की साधना में निरन्तर लीन होते जाना चाहिए। जो अपनी शक्ति से योगसाधना . में लीन रहता है, सार तत्त्वों को ग्रहण करता है, वह सच्चा भाव "जैनत्व" ग्रहण करता हैं और मिथ्याचारों को दूर करता है। __ जो तर्क-वितर्क को ही ज्ञान का आधार मानते हैं ऐसे लोग मन में ही निरन्तर लड़ते रहते हैं अर्थात् तर्क के जाल में ही उलझे रहते है, लेकिन जो ज्ञानी है वे सबसे उदासीन भाव रखते हैं। जहाँ दो का युद्ध है, वहां एक का पछाड़ खाना या गिर जाना अवश्यंभावी है। सच्चे साधक उदासीनता को ही सुख सदन मानते हैं। दुःख की छाया तो तब पडती है जब हम पर-प्रवृत्ति में लग जाते हैं, उदासीनता तो वह सुर-लता है जिसमें समता-रस के फल लगते हैं। उदासीन मुमुक्षु ऐसे ही फल का स्वाद करता हैं । आचार्य कहते हैं हैं कि तू दूसरों को परखने के चक्कर में मत पड। अपने ही गुण को अपने में ही परख । अर्थात् पर-छिन्द्रान्वेषण करने की अपेक्षा आत्मनिरीक्षण में तत्पर बन । उदासीनता ज्ञानरूपी फल है। और पर-प्रवृत्ति मोह है। विवेक से जो शुद्ध है, आत्मकल्याणकारी है, उसे अपनाओ। यह समाधितंत्र-विचार जो बुद्धिशाली धारण करता हैं उसका भाव पार हो जाता है। तात्पर्य यह कि, जो आत्मा के स्वरूप पर निरन्तर विचार करता है उसके लिए मुक्ति सहज बनती है। जो ज्ञान के विमान में आरूढ है, चरित्र की अग्नि से तपा हुआ है, सहज समाधि के नन्दनवन में विराजमान है, जिसने समतारूपी इन्द्राणी का वरण किया है, वह अगाध आत्मरंग में, रंग गया है। मुनि यशोविजयजी ने १०२ दोहों में इस 'समाधि-शतक' की रचना की हैं। जो इस शतक की भावना को धारण करता है उसका कल्याण होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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