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________________ ३८० जैन साहित्य समारोह - जब तक जीव नर-नारी या नपुंसक लिंग का छेदन नहि करता है तब तक उसे भव भव में जन्म-मरण भोगना पड़ता है । जिनका इन लिंगों में (संसारी अवस्था) राग भाव है, तब तक वे इस मोहजाल में फंसे रहेंगे और मुक्ति का सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर सकते । द्रव्यलिंग को दृढ़ कर, जो भाव लिंगी बन गया वही सिद्ध परमेश्वर बन सका। ऐसे सिद्ध परमात्मा ऐसी आत्मा में लीन हो जाता है, जिसका कोई लिंग या जाति नहीं होती। आचार्य निश्चय और व्यवहार की स्पष्टता करते हुए आगे समझाते हैं कि, व्यवहार एक स्वप्न -सी विकल दशा है, एक भ्रम है। जब तक हम निश्चय में अर्थात् आत्मा में स्थिर नहीं होंगे तब तक यह भ्रम छूट नहीं सकता । हमारे -सभी दोषों का क्षय तभी होगा जब हम निश्चय अर्थातू आत्मा में स्थिर हांगे यह बहिरआत्मा एक क्षण भी संसार से नहीं छूटता । जो अनुभवी है, निग्रंथ है, वे स्वप्न की तरह उसे छोड़ देते हैं जैसे कोल्हू का वैल कोल्ह में ही जुतकर हजारों मील की यात्रा तय करके -वहीं का वहीं रहता है। वैसे ही हम अनन्त काल से चलते रहे हैं लेकिन कभी इस मार्ग का चलितपन दूर नहीं हुआ। जब आदमी की बुद्धि स्थिर बनती है तभी उसकी रुचि और मन तल्लीन बनता है। ऐसा पुरुष आत्मा में ही मति को स्थिर करता है और आत्मा में ही रुचि पेदा करता है। ऐसा व्यक्ति कभी किसी के आधीन नहीं होता। भगवान की या परमात्मा की आराधना करते करते एक दिन भाविक वैसे ही परमात्माभय बन जाता है जैसे रूई की बत्ती ज्योति के निरन्तर संपर्क में आकर ज्योतिस्वरूप बन जाती है। आत्मा में स्थिर व्यक्ति की स्थिति वैसे ही होती है जैसे वृक्ष में अग्नि छिपी होती है । अर्थात् अग्नि उसमें निहित है। जब व्यक्ति अपने आपको आराधता है या अपने आप में ही स्थिर होता, तब स्वयं आत्मा से परम आत्मा बन जाता है । वह वचनों से अगोचर और दृष्टि से अरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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