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________________ जैन साहित्य समारोह ध्यान) में ही मस्त रहता है । आत्मज्ञानी तो मुवितरस में ही तन्मय होकर नाचता है, मगन रहता है। जिसे बहिरात्मा और अन्तरात्माको बोध है, जिसे बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा की स्थिति का ज्ञान है ऐसा ज्ञानी साथ देहादिक को एक मात्र भ्रम (बाह्य पदार्थ) मानता है और बहिरात्मा को अत्यंत दीन, पर पदार्थ और कमजोर तत्त्व मानता है। और उसका ध्यान केन्द्रित रहता है आत्मा और परमात्मा पर । यहाँ भी बहिरात्मा का तिरस्कार और आत्मा के स्वीकार की बात प्रस्तुत की है। पुनः इसी आत्मा के इन रूपों को अधिक स्पष्टता करते हए कहते हैं कि चित्त में जो दोष उत्पन्न होते हैं वे हमारे भमया द्विधा (द्वैतक) के कारण ही है । आत्मा का कार्य तो अन्तर में चलता ही रहता है। वहाँ भी अभी पूर्ण निर्मलता नहीं आई । परन्तु आत्मा की परमात्मा ही वह स्थिति है जहाँ संपूर्ण निर्मलता या निर्दोषता होती है। इस परमात्मा की निर्मलता प्राप्त होते ही कर्म की सारी मिलावट खत्म हो जाती है । अर्थात् परमात्मा की अवस्था में समस्त कर्मो की निर्जरा हो जाती है। कर्म की कोई मिलावठ नहीं रहती। यही सच्चा द्विवस्था है। संसार को ही सर्वस्व माननेवाले संसारी जीव देह आदि को ही देखते हैं। ऐसे लोग इन्द्रियवल को महत्त्व देते हैं जो कि बहिरात्मा . या पूर्ण सांसारिक है। ऐसे लोगों का मन सतत अहंकार में ही लगा रहता है। इसके साथ ही जो आत्मरत रहकर परमात्मपद की ओर उन्मुख है ऐसा समाधिस्त उस अज्ञात-अगोचर, निरंजन स्वरूप की आराधना करता है। यही तत्त्व है जो हम में निरंतर विद्यमान है। उस शक्ति को ज्ञानी (आत्मज्ञानी) पुरुष पहचान लेता है और वैसे ही भेद कर लेता है जैसे हंस क्षीर-नीर का भेद कर लेता है । कषि ने बड़े ही स्पष्ट रूप से कहा हैं कि सच्चा साधक उस हंस-सा है जो आत्मा और पुद्गल के क्षीर-नीर-सा भेद करके क्षीर-आत्मा को स्वीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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