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________________ 124 Homage to Vatsali पाणिग्रहण किया। इस वक्त गुप्तवंश के मामूली राजाओं से बहुत ज्यादा असरदार और हिम्मत वाले थे वैशाली के लिच्छवि / इस विवाह का राजनीतिक प्रभाव गुप्तराज्य के प्रचलित सिक्कों में कुमारदेवी और चन्द्रगुप्त के अंकित नामों और खड़ी हुई तस्वीरों से भली भांति मालूम होता है। इन सिक्कों को यादगार के रूप में इस्तमाल किया गया है। इस विवाहसम्बन्ध के कारण चन्द्रगुप्त को वीर लिच्छवि जाति का सैनिक बल हाथ लगा। इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि लिच्छवियों की सहायता से लाभ उठा कर चन्द्रगुप्त ने, मगध सूबे से शक क्षत्रप को निकाल कर, गुप्तसाम्राज्य की स्थापना की। गुप्त वंश का सबसे प्रतापी सम्राट समुद्रगुप्त उसी लिच्छविकुमारी कुमारदेवी का पुत्र था / वह लिच्छविदौहित्र होने का अभिमान करता है / कौन यह कह सकता है, उसको अपनी दिग्विजयों में अपने मामा के वंश से कितनी सहायता मिली होगी? 320 ई० से 535 ई० तक गुप्त साम्राज्य के बीच वैशाली का इतिहास चमकता रहा। इस काल की करीब पांच सौ चिट्ठी मोड़ने की मिट्टी की सील-मोहरों से हमको मालम होता है कि वैशाली में व्यापार की बहुत तरक्की हुई थो; क्योंकि इन सील-मोहरों में अनेक श्रेष्ठियों, व्यापारियों और कारबारी आदमियों के नाम मिलते हैं। वैशाली में प्राप्त सीलों के कुछ चुने हुए उदाहरण ये हैं : (1) महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तपत्नी महाराजश्रीगोविन्दगुप्तमाता महादेवी श्रीध्रुव- स्वामिनी। (2) श्रीघटोत्कचगुप्तस्य / (3) कुमारामात्याधिकरणस्य / (4) श्रेष्ठि-सार्थवाह-कुलिक-निगम / (5) युवराजमट्टारकपादीय बलाधिकरणस्य / (6) श्रीरणमाण्डागाराधिकरणस्य / (7) दण्डपाशाधिकरणस्य / (8) तीरभुक्त्युपरिकाधिकरणस्य / (9) वीरभूक्तौ विनयस्थितिस्थाप (का) धिकरण (स्य) / (10) तीरकुमारामात्याधिकरण (स्य) (11) (वै) शाल्यधिष्ठानाधिकरण / (12) श्रेष्ठि-कुलिक-निगम / (13) गोमिकपुत्रस्य श्रेष्ठिकुलोटस्य / (14) श्रेष्ठिश्रीदासस्य। वस्तुतः गुप्तकालीन वैशाली व्यापार और.सम्पत्ति का केन्द्र थी। मगर शीघ्र ही वाणिज्य और लक्ष्मी के इस आवास पर कुठाराघात हुआ। पांचवों सदी के अन्त में दुष्ट, नीच और बर्बर हूणों ने भारतवर्ष पर हमला किया। अतएव जब 635 ई० में चीनी-परिव्राजक ह्वेनसांग वैशाली आया, तब उसे नष्ट कीति के अवशिष्ट चिह्न
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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