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________________ 464 Homage to Vatsali के लिए वैशाली छोड़ विदेह में ही आ गये थे। कुषाणों के पश्चिम बिहार (मगध-वैशाली क्षेत्र) से चले जाने पर ये लिच्छवि फिर वैशाली लौट आये तथा वैशाली-विदेह क्षेत्र पर * 319 ई० तक शासन करते रहे, यद्यपि अबकी परिवर्तित परिस्थिति में वे ममध पर पुनः अधिकार न कर सके (देखें मेरी 'हिस्ट्री ऑव् विदेह', पृ० 265-281) / प्रश्न यह उठता है कि जब वैशाली के लिच्छवि मगध के शुंगों से स्वतंत्र हुए और करीब साठ वर्षों का कुषाण-आधिपत्य छोड़ शेष समय में (अर्थात् करीब 125 ई० पू० से क. 80 ईसवी तक और करीब 140 ई० से 319 ई. तक) वैशाली पर शासन करते रहे, तब उनके प्रशासन का क्या स्वरूप था ? वे गणतंत्रवादी रहे अथवा राजतंत्रवादी हो गये ? - मेरे विचार से स्वतंत्रता के इस दूसरे युग में भी वैशाली के लिच्छवि गणतंत्रवादी ही रहे, राजतंत्रवादी नहीं हुए। मैं अपने विचार के समर्थन में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत करना उचित समझता हूँ : 1. शलातुर (आधुनिक लाहुर, मर्दान जिला, सरहदी सूबा, पाकिस्तान) में उत्पन्न, पाटलिपुत्र की शास्त्रकार-परीक्षा में उत्तीर्ण एवं नंदवंश के समकालीन प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने अपनी 'अष्टाध्यायी' (4.2.131) में पंजाब के मद्रों और उत्तर बिहार के वृजियों को एक साथ-एक ही सूत्र में गणतंत्रवादी जातियों में रखा है। इससे मालूम पड़ता है कि यद्यपि वैशाली पर मगध का राजनीतिक अधिकार हो गया था, तथापि मगध ने वहाँ की प्रशासन-प्रणाली में कोई छेड़छाड़ नहीं की और पहले से आती हुई गणतंत्रात्मक पद्धति को आगे भी चलने दिया। पाणिनि ने लिच्छवियों का अलग से कोई उल्लेख नहीं किया है। 2. मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त (325-301 ई० पू०) के प्रधान मंत्री कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' (11.1) में लिच्छविकों और वृजिकों का कई अन्य गणतंत्रवादी जातियों (मल्लक, मद्रक, कुकुर, कुरु, पंचाल आदि) के साथ उल्लेख किया है। मालूम पड़ता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी वैशाली में संघ-शासन ही चलने दिया गया था, किन्तु इस समय उसके दो भाग हो गये थे, वहाँ अलग-अलग लिच्छविक और वृजिक शासन कर रहे थे। कौटिल्य तो संघों में फूट डलवाने का पक्षपाती था ही। लगता है, वंशाली में उसकी नीति सफल हुई। संभवतः, लिच्छवि पश्चिमी भाग में (जिसमें वैशाली नगरी अवस्थित थी) रहे और वृजि पूर्वी भाग में चले गये। .. 3. 'मनुस्मृति' (10.22) में, जिसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी सदी (शुंगकाल) से दूसरी सदी ईसवी (कुषाणकाल) के बीच मानी जाती है, लिच्छवियों को व्रात्य क्षत्रिय (=निम्नकोटि के क्षत्रिय) कहा गया है / उस श्लोक में उनके पड़ोसी और सहयोगी मल्लों को भी उसी कोटि का माना गया है। प्रात्य का अर्थ होता है 'प्रथम तीन वर्षों में से किसी एक वर्ण का पुरुष जो मुख्य संस्कार या शोधक कृत्यों का अनुष्ठान न करने के कारण पतित हो गया है (जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ); बात या समूह से च्युत
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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