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________________ 400 Homage to Vaisali अनुगत श्रमण हो गये। इससे उस समय के. जैन सम्प्रदाय को गहरा आघात लगा था। महत्त्व की बात यह है कि सिंह सेनापति ने वैशाली में ही बौद्धधर्म को स्वीकार किया जो महावीर की जन्मभूमि भी थी। जैनधर्म के कठोर संगठन के कगार के ढहने की यह पहली प्रभावकारी घटना थी जो वैशाली में घटी। वैशाली में ही शास्ता ने गौतमक चैत्य में "त्रिचीवर" का विधान किया, जिसके अन्तर्गत बौद्ध श्रमण तीन वस्त्रों का ही उपयोग कर सकते थे। तृतीय और चतुर्थ पाराजिका का भी उपदेश शास्ता ने वैशाली में ही दिया। वैशाली के पांच सौ वज्जिपुत्तकों को बहकाकर देवदत्त ने संघभेद का विफल प्रयास किया था। यथासमय सारिपुत्त के गया पहुंच जाने पर संघभेद कुछ वर्षों के लिए टल सका / धर्म का संदेश देते-देते तथागत की आयु ढलान की ओर जा रही थी। उन्होंने अनुभव किया कि अब काया का नाश होनेवाला है। परिनिर्वाण निकट है तो वे राजगृह से वैशाली आए और आम्रपाली के आम्रवन में अपने संघ के साथ ठहरे / उन्होंने यहीं लिच्छवि गणराज्य की अद्वितीय सुन्दरी महाजनपद-कल्याणी सम्बपाली को धर्म की दीक्षा दी। इसी यात्रा में अम्बपाली ने भिक्षुसंघ को परोसकर खुद खिलाया और आम्रवन को संघ के लिए दान दिया। यहीं वैशाली के निकट तथागत को वेलुव ग्राम में मरणांतक पीड़ा हुई और स्वस्थ होने पर आनन्द को उन्होंने उपदेश दिया"भात्म दीप-आत्म शरण-अनन्य शरण, धर्म-दीप-धर्म शरण अनन्य शरण हो विहरो।" आनन्द ! मैंने पहिले ही कह दिया है-"सभी प्रियों से जुदाई होती है।" तथागत ने वैशाली में ही घोषणा की-"आज से तीन मास बाद तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे।" तथागत ने वहाँ से महावन कूटागारशाला में भिक्षुसंघ को (उपस्थानशाला में) एकत्र कर धर्मोपदेश के पालन की याद दिलाई, जिससे 'ब्रह्मचर्य, बहुजन हितार्थ बहुजन सुखार्थ, लोकानुकंपार्थ, देव-मनुष्यों के हित और सुख के लिए हो।' आर्य आष्टाङ्गिक मार्ग का स्मरण दिलाते हुए कहा-"भिक्षुओ! संस्कार (कृतवस्तु) नाश को प्राप्त होनेवाले (वयधम्मा) हैं। प्रमादरहित हो (कर्तव्य) सम्पादन करो।" कुशीनारा की ओर प्रस्थान करते हुए आनन्द से कहा-"आनन्द ! तथागत का यह अन्तिम वैशाली-दर्शन होगा।" यह कह वे कुशीनारा की ओर चल पड़े। बौद्ध कथाओं में ऐसी सूचना मिलती है कि तथागत के विछोह से विह्वल लिच्छवियों को अपना भिक्षापत्र देकर उन्होंने आग्रहपूर्वक लोटाया। इससे कुछ ही पूर्व अजातशत्रु द्वारा वैशाली पर आक्रमण के प्रतिरोध में आनन्द से लिच्छवि संघ के सन्दर्भ में सात अपरिहानीय धर्मों की जिज्ञासा करने पर तथागत को जब मालूम हुआ कि 'लिच्छवि अपने बड़ों का, स्त्रियों का यथोचित सम्मान करते, संघ द्वारा प्रवर्तित नियमों का पालन करते और अनुशासनबद्ध हो रहते हैं' तब उन्होंने घोषणा की-लिच्छवि संघ को तब कोई पराजित नहीं कर सकता। फिर भी अजातशत्रु के महामन्त्री वस्सकार ने तथागत-परिनिर्वाण (487 ईसा-पूर्व) के तीन वर्ष बाद (484 ईसा-पूर्व) वैशाली महाजनपद में संघ-भेद कर उसके गौरव को इस रूप में भूलुंठित कर दिया कि इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव का साक्षी होने पर भी लिच्छवि गणराज्य उस विगत गौरव-गरिमा को वापस न ला सका।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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