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________________ 166 Homage to Vaisali - -"हे इन्द्र / ऐसा न कभी हुआ है और न होगा कि देवेन्द्र या असुरेन्द्र की सहायता से अहंन्त केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करें। अहंन्त स्वपराक्रम से ही केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करते हैं।" भगवान का प्रथम मुख्य श्रावक आनन्द वैशाली के निकट-स्थित वाणिज्यग्राम का गृहपति था और वाणिज्यग्राम का राजा जितशत्रु भी भगवान का भक्त था। जब भगवान् वाणिज्यग्राम आये थे, तब जितशत्रु भगवान की वन्दना करने गया था। वाणिज्यग्राम में ही सुदर्शन नामक एक श्रमणोपासक रहता था, जिसने भगवान् से काल-सम्बन्धी प्रश्न पूछे थे। भगवान् अपनी छयावस्था के १०वें वर्ष में जब वाणिज्यग्राम आये थे, तो यही आनन्द श्रमणोपासक ने भगवान् को निकट भविष्य में केवलज्ञान-प्राठि की सूचना दी थी और कहा था-"हे भगवन् ! आपका शरीर और मन दोनों ही वज के बने हैं / अतः अति दुःसह परीषह और दारुण उपसर्गों के आने पर भी आपका शरीर टिका हुआ है। अतः, निकट भविष्य में आपको केवलज्ञान की प्राप्ति होगी।" भगवान की प्रथम श्रमणी चन्दना भी एक प्रकार से वैशाली से सम्बद्ध थी। मैंने अभी कहा है कि चेटक की पुत्री पावती चम्पा के राजा दधिवाहन से ब्याही थी। दधिवाहन की एक अन्य पत्नी का नाम धारिणी था। वह चन्दना धारिणी की पुत्री थी। इसी सम्बन्ध को लक्ष्य में रख करके शतानीक की पत्नी मृगावती ने चन्दना के लिए कहा था-"यह मेरी बहन की लड़की है।" __ भगवान अपने केवलज्ञान के बाद एक बार कुण्डपुर भी आये थे। आपकी इसी यात्रा में ऋषभदत्त और देवानन्दा ने दीक्षा ली थी। और, 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' में उल्लेख है कि इसी यात्रा में कुण्डपुर के तत्कालीन राजा, भगवान के सांसारिक जीवन के बड़े भाई नन्दिवर्द्धन भी आपकी वन्दना करने आये थे। जैनग्रन्थों में भगवान् महावीर-कालीन दर्शनों का चार भागों में विभक्त किया गया है : 1. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. अज्ञानवादी और 4. विनयवादी। भगवान महावीर-प्रतिपादित जैनधर्म इनमें क्रियावाद के अन्तंगत आता है। भगवान् स्वयं पुरुषार्थ में विश्वास करते थे और तद्रूप ही इन्होंने उपदेश भी किया। गोशालक के आजीवक-सम्प्रदाय का सद्दालपुत्र नामक एक श्रावक था। वह भाग्यवादी था। उसे भगवान ने उत्थान और पराक्रम का बोध कराया और वह भगवान् के मुख्य श्रावकों में हो गया। भगवान् ने धर्म दो प्रकार के बताये हैं-१. साधु-धर्म और 2. श्रावक-धर्म तथा आपने श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका-रूपी चतुर्विध संघ की स्थापना की। आपने कहा कि,
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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