SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 Homage to Vaisali मतान्तरों को अपने शुद्ध हिरण्मय तेज को प्रकाशित करने की आवश्यकता जैसी इस समय है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। धार्मिक चमत्कारों से, महात्माबों की सिद्धियों से, अथवा स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से मानवी बुद्धि को व्यामोहित करने का युग सदा के लिये चला गया / सिद्धि और चमत्कार मानवी प्रज्ञा के शत्रु हैं। महावीर को आगमों में दीर्घप्रज्ञ कहा गया है / बुद्ध प्रज्ञा के महान् स्कंध या वृक्ष कहे गए हैं। कृष्ण का सबसे बड़ा बरदान बुद्धियोग की शिक्षा है। बुद्धि या प्रज्ञा या ज्ञान की आराधना ही मानव की मानवता है / भावुक व्यक्ति सिद्धि को ढूंढ़ता है। नैष्ठिक व्यक्ति स्वयं अपनी बुद्धि के धरातल पर आरूढ़ होकर प्रयत्न करता है और कर्मसिद्धि प्राप्त करता है। बुद्धिनिष्ठ मानव संघर्ष का आवाहन करता है / मनोऽनुगत मानव अनुकूलता या आराम से अभीष्ट पा लेना चाहता है। ऐसी भावना प्रज्ञाशून्य मानव की वृत्ति है। श्रमण धर्म ज्ञातृपुत्र महावीर को श्रमणधर्मा कहा गया है। प्राचीन भारतीय श्रमण धर्म की वास्तविक परम्परा जैसी महावीर के साधना-प्रधान धर्म में सुरक्षित पाई जाती है वैसी अन्यत्र नहीं। किन्तु इस श्रम का व्यापक अर्थ था। शरीर का श्रम श्रम है। बुद्धि का श्रम परिश्रम है / आत्मा का श्रम आश्रम है / एकतः श्रमः श्रमः। परितः श्रमः परिश्रमः / आ समन्तात् श्रमः आश्रमः / एक में जो शरीर मात्र से अधूरा या अवयव श्रम किया जाता है वह श्रम है। एक में जो मन और शरीर की सहयुक्त शक्ति से पूरा धर्म किया जाता है, वह परिश्रम है / और सबके प्रति चारों ओर प्रसृत होनेवाला जो श्रम भाव है वह आश्रम कहलाता है / ये तीन प्रकार के मानव होते हैं। केवल जो श्रमिक हैं, वे सीमित, बड़-मावापन्न, दुःखी और क्लान्त रहते हैं / जो अपने केन्द्र में जागरूक शरीर और प्रज्ञा से सतत प्रयत्नशील रहते हैं वे दूसरी उच्चतर कोटि के प्राणी हैं। वे सुखी होते हुए भी स्वार्थनिरत होते हैं। किन्तु तीसरी कोटि के उच्चतम प्राणी वे हैं जिनके मानस केन्द्र की रश्मियों का विवान समस्त विश्व में फैलता है और जिनका आत्मभाव सबके दुख-सुख को अपना बना लेता है। ऐसे महानुभाव व्यक्ति ही सच्चे मानव हैं। वे ही विश्वमानव, महामानव या श्रेष्ठ मानव होते हैं। ऐसे ही उदार मानव सच्ची श्रमण-परम्परा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक थे। वे किसी निजी स्वार्थ या सीमित स्वार्थ को प्राप्ति या भोगलिप्सा के लिये अरण्यवास नहीं करते थे, वह सुख स्वार्थ तो उन्हें गृहस्थ जीवन में भी प्राप्त हो सकता था। अनन्त सुख की संयम द्वारा उपलब्धि ही श्रमण जीवन का उद्देश्य था जिसमें समस्त सीमा-भाव विगलित हो जाते हैं। काश्यप महावीर द्वारा प्रवेदित धर्म एवं शाक्य-श्रमण गौतम द्वारा प्रवेदित धर्म दोनों इस लक्ष्य में एक सहश हैं। दार्शनिक जटिलताओं को परे रखकर मानवता की कसौटी पर दोनों पूरे उतरते हैं / शम का मार्ग विश्व को अपने आत्मभाव की परिधि में समेट लेने की दृढ़ आधार-भूमि शम की उपासना है। शम या शान्ति विश्वमानव की सबसे महती संप्राप्ति है। एक ओर शम का तात्पर्य पूर्ण इन्द्रिय-निग्रह और आत्मविजय का मार्ग है। यही आध्यात्मिक साधना कही गई
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy