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________________ भगवान बुद्ध और वैशाली 77 उत्पन्न हुआ है उसका एक दिन विनाश निश्चित है / इसलिए आनन्द ! शोक मत कर / आज से तीन मास बाद हमारा निर्वाण होगा। बुद्ध ने यह घोषणा इसी वैशाली नगर के चापाल चैत्य में, ईसा से 423 ई० पूर्व माघ मास की पूर्णिमा को की थी। इस प्रकार अपने निर्वाण का समय निकट जान कर, भगवान वैशाली से विदाई लेने लगे / चापाल चत्य से वे महावन के कूटागार बिहार में आये / वहाँ भिक्षुओं को बुलाकर उपदेश दिया। फिर अन्तिम भिक्षाटन के लिए अपना पिण्डपात्र लेकर नगर में प्रवेश किया और सारे नगर में घूमकर पश्चिमी द्वार से बाहर निकले। बाहर निकल कर एक बार अपने सारे शरीर को हाथी की तरह घुमा कर, स्नेहपूर्ण आँखों से वैशाली की ओर देखते हुए, आनन्द से कहा- "आनन्द ! तथागत का यह अन्तिम वैशाली दर्शन है / बुद्ध के इस करुणापूर्ण वाक्य से प्रकट होता है कि उनके हृदय में, इस भूमि के प्रति कैसे भाव थे। इधर वैशाली के लिच्छवियों ने जब सुना कि भगवान् अब सदा के लिए वैशाली से जा रहे हैं, तब शोकाकुल होकर वे लोग भी उनके पीछे-पीछे चले / भगवान् ने जब उन्हें अपने पीछे-पीछे चलते देखा, तब उनसे वापस लौटने का आग्रह करने लगे / किन्तु बार-बार आग्रह करने पर भी जब वे लोग वापस नहीं लौट सके तब भगवान् ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा एक नदी पैदा कर दी, जिसकी धारा बड़ी तीव्र और किनारे अत्यन्त भवावह थे। लिच्छवि लोग इस नदी को किसी प्रकार पार नहीं कर सकने के कारण रुक तो गये किन्तु उनका शोक और बढ़ गया। और वे लोग चुपचाप किनारे पर खड़े होकर भगवान की ओर देखने लगे। इस करुणापूर्ण दश्य को देख कर, उस दयामति का य भी क्षण भर के लिए ममता से आक्रान्त हो गया। और अन्त में अपनी स्मति आशीर्वाद और प्रेम के प्रतीकस्वरूप अपना पवित्र मिक्षापात्र किनारे रख कर कुशीनगर की और चल पड़े। इन घटनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान बुद्ध के साथ वैशाली का कितना घनिष्ठ सम्बन्ध था, बुद्ध के प्रति यहाँ के निवासियों के हृदय में कितनी अगाध श्रद्धा थी, और भगवान् को इस भूमि से कितना अधिक स्नेह था।। आपने अपने समारोह में मुझे आमंत्रित कर भगवान् तथागत की इस प्रिय भूमि के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का मौका दिया, इसलिए मैं आपलोगों का अनुगृहीत हूँ। और एक बार फिर आपलोगों को हृदय से धन्यवाद करता हूँ।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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