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________________ भगवान बुद्ध और वैशाली 75 एक समृद्धिशाली नगरी थी। एक-एक गन्यूति (एक कोस) की दूरी पर तीन प्राकार थे। पहले प्राकार के भीतर 7,000 वैसे भवन थे जिसके कलश सोने के थे। दूसरे प्राकार के भीतर 14,000 वैसे मकान थे, जिनके कलश चांदी के थे, और तीसरे प्राकार के भीतर 21,000 वैसे घर थे, जिनके गोपुर तांबे के थे। इसके अलावे 7,707 प्रासाद, 7,707 आराम (उद्यान गृह) और 7,707 पुष्करणियाँ थीं / इस प्रकार यह नगरी अनेक चतुष्पदी में विभक्त, गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से मंडित बड़े-बड़े प्रवेशद्वारों से सुशोभित, स्वर्ग के समान रम्य, दिव्य और सुन्दर थी / स्वयं भगवान् बुद्ध ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में यहाँ के रमणीय स्थानों का वर्णन बड़े ही मामिक शब्दों में, अपने प्रिय शिष्य आनन्द को सम्बोधित करते हुए किया था-"आनन्द ! रमणीय है, वैशाली ! रमणीय है, उसका उदयन चैत्य, रमणीय है, उसका गौतमक चैत्य, रमणीय है, उसका सप्ताम्रक चैत्य रमणीय है, उसका बहुपुत्रक चैत्य, रमणीय है, उसका सारन्दद चैत्य"। ये सभी चैत्य वैशाली के देव स्थान थे, जहां भगवान् बराबर विहार करने जाया करते थे। बुद्ध लिच्छवियों की जीवन-व्यवस्था के बड़े प्रशंसक थे। यहीं को गणतान्त्रिक शासन पद्धति के अनुसार उन्होंने बौद्ध संघ का संगठन भी किया था। महापरिनिर्वाण सूत्र एवं संयुक्त निकाय के अध्ययन से विदित होता है कि लिच्छवियों के सिर्फ सामाजिक नियम ही उन्हें प्रिय नहीं थे, बल्कि उनके वैयक्तिक जीवन से भी उनको गहरी दिलचस्पी थी / उनका विलासितारहित कठोर जीवन, उनकी अनुशासनप्रियता, बड़े बूढ़ों के प्रति उनकी सम्मानभावना स्त्रियों के प्रति आदर का भाव, स्वेच्छाचार या बल प्रयोग का त्याग, अतिथियों की सेवा, आपस में बराबर मिलना-जुलना, मिलजुल कर बहुमत द्वारा किसी बात का निर्णय करना और उस निर्णय को कार्यान्वित करने में सबका परस्पर सहयोग देना, बुद्ध को अधिक प्रिय था। एक बार भगवान् यों ही आम्रवन में विहार कर रहे थे, जब लिच्छवि लोग उनसे मिलने गये / दूर में लिच्छवियों को आते देख कर भगवान् ने अपने शिष्यों से कहा “अवलोकन करो परिषद् को त्रायस्त्रिंश देव-परिषद् समझो"। बुद्ध के इन वाक्यों से यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि यहां के निवासियों के प्रति उनके हृदय में कितना ऊंचा स्थान था। भगवान के जीवन का कुछ अन्तिम दिन बड़े ही मार्मिक ढंग से इसी वैशाली में व्यतीत हुआ था। यहीं के वेलुगाम में जब वे अपने जीवन के अन्तिम वर्षों को बिता रहे थे, उन्हें बड़ी कड़ी बीमारी उत्पन्न हुई, भारी मरणान्त पीड़ा होने लगी। किन्तु यह सोच कर कि, मेरे लिए यह उचित नहीं है कि मैं अपने आपको बिना कुछ जतलाये, बिना अवलोकन. किये, निर्वाण लाम करूं, उस व्याधि को वीर्य से हटा कर प्राण शक्ति को दृढ़तापूर्वक धारण कर लिया / तब धीरे-धीरे वे अच्छे हुए / बीमारी से उठने के बाद जब एक दिन विहार की छाया में बैठे थे, उसी समय आनन्द वहां आये और आसन ग्रहण करने के बाद भगवान में निवेदन किया- "भन्ते ! मेरा शरीर शून्य हो गया था, मुझे न दिशाएं सूझती थीं त धर्म का हो भान होता था, किन्तु आशा थी कि भगवान् बिना कुछ भिक्षु संघ को कहे परिनिर्वाण प्राप्त नहीं करेंगे।" आनन्द के इस प्रकार प्रश्न करने पर भगवान ने कहा-"आनन्द ! भिक्षु
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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