SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक लाख परमारों का उद्धार : 381 गई। कुमार मोहन डभोई से बोडेली आ गए। यहां वे धार्मिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने लगे। जब कुमार मोहन दस वर्ष के थे उस समय उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। अपनी उम्र के सत्रह वर्ष तक वे बोडेली छात्रालय में पढ़ते रहे। कुमार मोहन के हृदय में बचपन से ही वैराग्य के बीज पड़ गए थे। वे बीज अब अंकुरित होकर पुष्पित और पल्लवित हो गए थे। उन्होंने अपने चाचा सीताभाई से कहा - "मैं सांसारिक मोहजाल में फँसना नहीं चाहता। में दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना चाहता हूँ।" यद्यपि उनके चाचा नहीं चाहते थे कि मोहन दीक्षा ले; पर कुमार मोहन के दृढ निर्णय के आगे वे झुक गए। न चाहते हुए भी उन्होंने कुमार मोहन को भारी मन से आंखों में आंसू लिए दीक्षा के लिए विदा किया। सत्रह वर्षीय कुमार मोहन दीक्षाग्रहण के लिए नरसंडा (गुजरात) में बिराजित मुनि श्री विनय विजयजी महाराज के चरणों में उपस्थित हुए। मुनि श्री विनय विजयजी से कुमार मोहन का परिचय बोड़ेली में ही हो गया था जब मुनि श्री विनय विजयजी जीवनलालजी के नाम से बोडेली में जैन धर्म के प्रचार का कार्य कर रहे थे। मुनि श्री विनय विजयजी कुमार मोहन को अच्छी तरह जानते थे। उनकी विनय, नम्रता, सरलता, वैराग्य और अध्यवसाय से पूर्णतया अवगत थे। अतः उन्होंने कुमार मोहन की योग्यता और पात्रता देखकर ई. सन् 1941 में नरसंडा गांव में दीक्षा दे दी। उनका नया नाम रखा गया मुनि श्री इन्द्र विजयजी महाराज। वे परमार क्षत्रिय वंश के आद्य जैन दीक्षित मुनि इन्द्र विजय का संकल्प मुनि श्री इन्द्र विजयजी का गहन अध्ययन उनके गुरु मुनि श्री विनय विजयजी के पावन, प्रेरक सान्निध्य और मार्गदर्शन में प्रारंभ हुआ। गुजरात से विहार करते हुए वे राजस्थान में पधारे। यहां बीजोवा
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy