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________________ एक लाख परमारों का उद्धार : 379 कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति में परमार क्षत्रियों की साख, प्रभुत्व, अधिकार और व्यापकता का स्वीकार किया है। एक समय था जब सम्पूर्ण भारत में परमार क्षत्रिय वंश की बोलबाला थी। परमार लघुभोज की मृत्यु और वादिवेताल श्रीशांतिसूरि के स्वर्गवास के बाद परमारों का जैन धर्म से परिचय सिमट गया। परमार क्षत्रियों में परस्पर जो एकता थी वह भी टूट गई। इसलिए वंश विभक्त हो गया और बिना माली की जो दशा चमन की होती है वही दशा परमार क्षत्रियों की हुई। सम्पर्क उज्जयिनी से टूट गया और वे अपने में ही सिकुड़ते चले गए। यद्यपि जैन धर्म का सम्पर्क उनसे टूट गया था फिर भी उसके जो मौलिक संस्कार थे वे उनमें जीवित रहें। उन्होंने अपने छोटे-छोटे राज्य बनाएं। देवगढ़ उनकी मुख्य राजधानी थी। शेष परमार क्षत्रिय दो सौ कि.मी. के अन्तर में सात सौ गांवों में विभक्त हो कर बसे हुए थे। स्वतंत्रता के बाद वे गांव दो जिलों में विभाजित हो गए और उनके छोटे-छोटे राज्यों का भारत में विलीनीकरण हो गया। राज्य चले जाने के बाद उन्होंने अपना सौम्यता, मानवता एवं निष्कपटता से सभर है। वे निर्भीक और परिश्रमी हैं। स्वाभिमान की भावना भी उनमें उत्कट है। वे न किसी के आगे हाथ पसारते हैं न अपना अपमान किसी तरह सह सकते हैं। परमार क्षत्रियों का धर्मप्रेम ___ परमार क्षत्रिय स्वभावतः शूरवीर, निडर, परिश्रमी, सरलात्मा और धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं। मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमान्त में रहने के कारण दोनों संस्कृतियों का समन्वय उनमें मिलता है। महाराजा विक्रमादित्य, मुंज और भोज की वीरता का रक्त उनकी नसों में बहता है और कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य एवं महाराजा कुमारपाल द्वारा प्रवर्तित अहिंसा का घोष भी उनके कर्णों में गूंजता है। बोडेली जिला बडौदा के आसपास परमार क्षत्रियों के गांव हैं। बाडेली उनका व्यापारिक केन्द्र है। यहां इ. सन. 1915 के लगभग सुश्रावक सोमचन्द्र
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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