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________________ 372 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें? ईश्वर को देखने, सुनने, भोगने, बनने आदि का तो प्रश्न ही नहीं रहता है। करने-बनाने आदि की इच्छा हो तो ही ईश्वर पृथ्वी, पर्वत, नदी, नाले, तलाब, समुद्र, आकाश आदि अनेक पदार्थ बना सकता है, कर सकता है। करता-बनाता है, बनाता ही रहता है। कार्य करने की इच्छा कार्यपूर्ति के बाद पूरी हो जाने पर चली जाती है, विलीन हो जाती है। तो क्या एक बार सृष्टि की रचना करने के बाद ईश्वर की इच्छा रहती है या चली जाती है, विलीन हो जाती है? सृष्टि की रचना तो हो चुकी है। अतः अब तो ईश्वर इच्छा रहित-निरीह हो जाएगा। जब सर्वथा निरीह हो चुका हो तब किसी प्रकार की इच्छा के जगने का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा। तब फिर इच्छा के अभावमें ईश्वर का स्वरूप कैसा होगा? और इच्छा के अभाव में अपनी सृष्टि का पालन कैसे करेगा? सब को सुख-दुःख कैसे देगा? कर्मफल कैसे देगा? सृष्टि की व्यवस्था तथा संचालन कैसे करेगा? यदि नहीं कर पाएगा तो अव्यवस्था हो जाएगी। तथा अन्त में जाकर प्रलय-संहार या सृष्टि का विसर्जन कैसे करेगा ? क्योंकि प्रलयादि सब इच्छा के अभाव में संभव नहीं है। अत: एक बार इच्छा रहित हो जाने के बाद भी ईश्वर को फिर इच्छा जगानी ही पडेगी। इस तरह ईश्वर अनन्त काल तक भी इच्छा के बंधन में इस तरह झूलता रहेगा जैसे मानों समुद्र का पानी लहरों के बीच झूलता रहता है। समुद्र का पानी कभी भी शान्ति का अनुभव कर ही नहीं सकता है। स्थिरता क्या है? और कैसी होती है? यह अनुभव कभी भी सामुद्री जल कर ही नहीं सकता है। ठीक वैसी ही स्थिति ईश्वर की होगी। इच्छा के आधीन, इच्छा के कारण ईश्वर न तो कभी शान्त हो सकता है और न ही कभी स्थिरता आ सकती है। सतत सदाकाल ईश्वर इच्छा के बीच झूलता ही रहेगा। इससे ऐसा लगता है कि क्या ईश्वर की इच्छा नित्य है या अनित्य ? ईश्वर अल्पकालीन है या समकालीन है या अतिकालीन - दीर्घकालीन? ईश्वर के अभाव में इच्छा का अस्तित्त्व तो संभव ही नहीं है। क्योंकि
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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