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________________ 368 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें ? करके इच्छा पर नियंत्रण पाया। विजेता बने। वास्तव में आत्मिक सुख का विराट साम्राज्य पाया ऐसी स्थिति आई कि... उन ऋषि-महर्षियों को पूछा गया कि... अब आपकी कोई इच्छा शेष रही है? क्या आपकी कोई इच्छा पूरी करनी है तो बताइए। उसके उत्तर में उन्होंने स्पष्ट कहा कि - "नहीं, न हमारी कोई इच्छा है और न ही कोई इच्छा अधूरी है जिसे पूरी करनी है... इच्छा हो, या इच्छा अधूरी हो और हम योगी - ऋषि - महर्षि बनें यह कैसे संभव हो सकता है? इच्छा और योगी - ऋषि - महर्षिपना ये परस्पर विरोधी शब्द है। एक दूसरे के विरोधी है। अत: इच्छा की गुलामी के साथ योगी - ऋषि - महर्षि नहीं बना जा सकता इसलिए सही - सच्चा योगी ऋषि - महर्षि वही है जो इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है। इच्छा के परे पहुँच जाता है। निरीह - “इच्छा रहित" हो जाता है। अब योगी - ऋषि-महर्षि ऊपर और इच्छा नीचे रह जाती है। जैसे मैल-कचरा या मिट्टी पानी के नीचे जम जाता है और शुद्ध पानी ऊपर रह जाता है। वैसे ही निर्मल जल की तरह, योगी ऋषि-महर्षि इच्छारूपी मैल - कचरे को नीचे छोड कर स्वयं ऊपर उठ जाते है। पुनः उसके आधीन - गुलाम नहीं बनते और जो गुलाम बनते हैं वे योगी नहीं कहलाते, नहीं बन सकते। योगी की शुद्ध अवस्था होती ईश्वर तो योगियों के भी योगी परमयोगी है, महायोगी है, योगीनाथ है। क्या ऐसा ईश्वर इच्छाओं से ऊपर नहीं उठा है? क्या ईश्वर ने इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं पाया ? क्या उन्हें इच्छा सताती ही रहती है ? इसलिए ऊठी हुइ इच्छा को पूरी करने के लिए ईश्वर सृष्टि की रचना कर देता है। ईश्वर की कितनी इच्छाएं होती है? क्या जितने कार्य करने रहते हैं उतनी इच्छाएं होती हैं ? या इच्छा एक ही होती है और कार्य अनेक होते हैं? तो क्या ऐसा समझना चाहिए कि... एक ही इच्छा से अनेक कार्य हो जाते हैं। अनेक कार्य परस्पर विरुद्ध भी होते हैं। जैसे माँ को जिन्दा रखना और पुत्र की मृत्यु करना। या फिर पुत्र को जिन्दा रखना
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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