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________________ प्रभु-भक्ति है कल्पतरु 353 भक्ति के नौ रूप प्रचलित हैं - 'श्रवण, कीर्तन, स्मरण, चरण-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।' 3. यह नवधा भक्ति जैनों एवं वैष्णवों में समान रूप से मान्य है। प्रभु को अनेक नामों से स्मरण किया जाता है, परन्तु उनका सच्चिदानन्द वीतराग स्वरूप अखण्ड है, अक्षय है, अनुपम है। 'श्री भक्तामरस्तोत्र' में प्रभु को ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, बुद्ध आदि कहा है: त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्। व्यक्त्वं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि // 25 // और कलिकाल कल्पतरु श्री वल्लभसूरिजी श्री पार्श्वनाथ जिनस्तवन' देव प्रभु ईश्वर खुदा हरि हर ब्रह्मा राम। तीर्थंकर अरिहन्तजी, उनको करूँ प्रणाम / / जो समस्त दोषों से रहित, राग-द्वेष-मुक्त करुणासागर वीतराग प्रभु हैं उनकी उपासना निर्मल भक्ति-भाव से करनी चाहिये। प्रभु की निर्मल भक्ति समस्त सुखों की दात्री है, जगत् कल्याण की विधात है। अस्तु। जगत्-कल्याण के लिए, मानवीय मंगल के लिए, प्राणिमात्र के सुख-सौख्य के लिए, तनाव-मुक्ति के लिए प्रभु-भक्ति की उपादेयता असंदिग्ध है। इससे मानव में नैतिक संसार प्रस्फुटित होते हैं, इससे मानवीय चरित्र का निर्माण होता है। सुचरित्र से मानव में परमार्थ-भाव जागृत होता है जिससे वह सत्कर्म में संलीन हो जाता है। इससे प्रेमधन परमात्मा का सच्चिदानन्द स्वरूप मानस-मन्दिर में प्रेम रूप में प्रस्थापित होता है। विश्व-मैत्री की लता सुख-शान्ति के कुसुमों से प्रस्फुटित होकर जगत् को आनन्दमय कर देती है। प्रभु-भक्ति का यह अचूक परिणाम है। महोपाध्याय श्रीमद् 3. श्रवणं कीर्तन विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् / 1 अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यात्मनिवेदनम् // (1) / श्रीमद् भागवत - 75 / 23.
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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