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________________ स्वर्णाक्षरों में...... अभिनन्दन की बेला अपूर्व, महक उठे हृदय के चंदन के मानिन्द हो गई, चरण कमल की तीर्थंकर वाणी घर घर पहुँची, गौरवान्वित हुई धरा समूची । ज्ञान रवि एक उदित हुआ है, शेखरभाई ने शिखर छुआ है ॥ सेवायुक्त स्तुत्य कार्य से, आदर मिला समाज राष्ट्र से । प्रेमभाव विकसित है कितना, दिलों के जुड़े हुए तार से ॥ संपादक हैं आप प्रखर, रचनाएं कितनी गईं निखर । छू लिया जिसे अपने हाथों से, मुद्रित हुई स्वर्णाक्षरों में ॥ जैसा तुमको पहिचाना..... अनवरत बहते ऊर्जा प्रवाह को, कैसे जाना जा सकता है? जानी जा सकतीं उनकी पर्यायों को । तीर्थंकर वाणी के सह संपादक के रूप में, पंद्रह साल साथ साथ जिया हूँ, परिवार के सदस्य की भाँति । ज्यादातर उनके स्नेह से सिक्त होता रहा, कभी उनके क्रोध का शिकार भी हुआ। लेकिन उनके स्वभाव और परभाव से, ज्ञात होने की वजह से न खेद हुआ न खिन्न हुआ। अपनों के, संकट युद्ध में, वे कभी निमंत्रण की राह नहीं देखते कृष्ण की तरह, खुद सारथी की जगह ले लेते हैं। इसलिये तो देश और परदेश में उनके प्रियों की बड़ी लंबी सूची है - इसमें एक मैं भी हूँ । साहित्य, आध्यात्म, संपादकीय लेखन के माहिर, प्रवचनपटु हैं। ज्ञात और अज्ञात अनेकों के स्नेहभाजन हैं, सत्यनिष्ठ होने से, कटु सत्य कहने के कारण कुछ लोगों को नापसंद भी हैं। लेकिन लोगों की पसंद-ना पसंद से उनको क्या लेना देना? वो तो 'चल एकेले' के पक्षधर हैं। फूल । धूल ॥ 63 हुकुमचंद सोगानी (पूना) विनोद 'हर्ष', सहसंपादक 'तीर्थंकर वाणी' 1
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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