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________________ 60 श्री शे र चं - द जै - ख खारा है संसार यहाँ, यही जानकर करें त्याग महान ! रत्नत्रय को धारण कर, आतम का होवे निज कल्याण ! चंदन का शीतल मन हो, यही आत्म का मूल सिद्धांत ! दमन शमन हो इंद्रिय जाल, पा जाओ तुम सिद्धालय जान ! जैनधर्म 'तीर्थंकर वाणी' श्रद्धा की सत्पथ की खान ! न - नमन करो सम्मेद शिखर को, शेखर तुम सत्पथ का आशीष जान ! - - - - श्री शेखरचंद्र जैन श्री वीरप्रभु के पथ पर चलकर करना तुम आत्मकल्याण ! शेखर से दमको, हो अंतिम जीवन का लक्ष्य महान ! आ. १०८ भरतसागरजी महाराज स्मृतियों के वातायन से सुबन्धु शेखरचन्द्र को, मेरा विनम्र प्रणाम है। पं. लालचन्द्र जैन राकेश (गंजबासौदा ) इस घटा पर रोज ही हैं, जन्म लेते कोटि जन । और प्रतिदिन कोटि ही जन, ओढ़ सोजाते क़फन ॥ कौन उनको जान पाया, व्यर्थ ही आये गये । जबतक जिये वे इस धरा पर, बोझ ही बनकर जिये ॥१ ॥ किन्तु जिनके आगमन से, वंश का गौरव बढ़े। देश - धर्म - समाज, उन्नति के शिखर ऊपर चढ़े ॥ ऐसे मनुज का जन्म लेना, सार्थक, अति नेक है। श्रीमान् शेखरचन्द्र का, प्रिय नाम उनमें एक है ॥२ ॥ उन्नीस - सौ, अड़तीस सन्, उन्तिस दिसम्बर शुभाधना । पिता पन्नालाल, माता जयश्री ललना जना ॥ वही शेखरचन्द्रजी ये, पढ़-लिख हुये पी. एच - डी. हार मानी भाग्य ने, फहरी ध्वजा पुरुषार्थ की ॥ ३ ॥ पर की बनाई राह पर, दौड़ना सबको सरल । राह खुद अपनी बनाते होते मनुज अति ही विरल ॥ राह खुद की, खुद बनाके, खुद ही बढ़ते आये हैं। श्रीमान् शेखरचन्द्रजी, उनकी बने पर्याय हैं ॥४ ॥ कौन कहता है मनुज का, भाग्य लिखता अन्य है। पुरुषार्थ है जिसने किया, बस वही होता धन्य है ॥
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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