SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1447 । हवन में साकल्य (धूप) शुद्ध अर्थात् मर्यादित होना चाहिए। जिससे हिंसा से बचा जा सके। हवन में धूप का । प्रयोग वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक रूप से किया जाता है। आध्यात्मिक हमारा मुख्य लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। अर्थात् औदारिक शरीर से परमौदारिक एवं सूक्ष्म आत्म तत्त्व की प्राप्ति करना है। और राग-द्वेष विषयविकार रूपी कर्मों को प्रक्षालन या कर्म दहन कर कर्ममल दूर करना / हवन में प्रयुक्त धूप अग्नि का सानिध्य पाकर स्थूल ! से सूक्ष्मता को प्राप्त करती है। ___हवन से उठने वाले धुआं से वायुमंडल स्वच्छ पवित्र एवं विषैले कीटाणु रहित हो जाता है। हवन सामग्री में सुगंधित द्रव्य कपूर घी मिश्रित होता है जिसके जलने से वायुमंडल में प्रदूषण फैलने वाले दोषों एवं अशुभ वर्गणा नष्ट हो जाती है हवन में उत्पन्न धुआँ में चेचक, रक्त विकार, गांत्ररोग, निमोनिया, हैजा, तपेदित आदि रोगों के रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता होती है। मंत्रों के सामूहिक सस्वर उच्चारण से आत्मिक शक्ति प्रकट होती है। सभी क्रियायें मंत्रपूर्वक उच्चारण पूर्वक । ही करना चाहिए क्योंकि मंत्र विहीन क्रियाओं से कार्यसिद्धि नहीं होती है। __प्वज-जिस मंदिर में ध्वज नहीं होता उस मंदिर में किया गया पूजन हवन और जाप सभी विलुप्त हो जाते हैं। अतः मंदिर पर ध्वजा अवश्य होना चाहिए। अनुष्ठान के पूर्व ध्वज स्थापना मुख्य कर्त्तव्य होता है इससे i अनुष्ठान के शुभाशुभ का ज्ञान एवं सफलता की सूचना मिलती है और अनुष्ठान का फल भी मिलता है। | पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-पंचकल्याणक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा एक महानुष्ठान है जिसके माध्यम से प्रतिमा में अंगन्यास, मंत्रन्यास, तिलकदान, नेत्रोन्मीलन सूरिमंत्र आदि मंत्र संस्कारों के द्वारा गुणों का आरोपण किया जाता है। आचार्य वसुनंदी श्रावकाचार के अलावा अन्य श्रावकाचारों में मंदिर / प्रतिमा बनवाने का प्रतिष्ठा कराने का निर्देश तो किया है किन्तु प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख नहीं है पंचकल्याणक महानुष्ठान होते हुए भी आचार्य वसुनंदी । ने उसे अनुष्ठान नहीं जिनबिंब प्रतिष्ठा कहा है। षट्खण्डागम आदि ग्रंथों में अनेक आचार्यों ने पूजन एवं अष्ट द्रव्यों का कथन किया है किन्तु पूजा विधि का उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य सोमदेव ने ही किया है उसके बाद सभी श्रावकाचारों ने उनका ही अनुसरण करके उनके विषय का ही विस्तार किया है। आचार्य सोमदेव प्रणीत पूजा पद्धति पर वैदिक पूजा पद्धति का स्पष्ट प्रभाव । दिखता है। जो निम्न कथन से पुष्ट होता है. गृहस्थ धर्म दो प्रकार हैं- (1) लौकिक धर्म- लोक रीति के अनुसार। (2) पारलौकिक धर्म- आगम के अनुसार। लौकिक धर्म में वेद अथवा अन्य शास्त्र प्रमाण रहे इसमें हानि नहीं है क्योंकि जैनधर्मानुयायियों को वह लौकिक धर्म मान्य है जिसमें सम्यक्त्व की हानि एवं व्रतों में दूषण नहीं लगता है। आचार्य सोमदेव के इस कथन । से जैन पजन वैदिक पजा का मिश्रण सम्भव प्रतीत होता है फिर भी सम्यकदर्शन की कशलता एवं सखद जीवन के लिए श्रावक को पूजा आदि षट आवश्यक नित्य करते रहना चाहिए। आचार्यों ने श्रावकाचार में इसकी विशेष व्याख्या करके हमारा उपकार किया है। नित्य पूजा एवं नैमित्तिक पूजा के माध्यम से अपने भावों को विशुद्ध बनाना ही श्रावकाचार का मूल उद्देश्य है। नित्य पूजा वह है जो हम प्रतिदिनि करते हैं किंतु नैमित्तिक पूजा | महापूजा / विधान / अनुष्ठान है। निर्विघ्न पूजा की समाप्ति के लिए दान और सम्मान आदि उचित उपायों के द्वारा विधर्मियों को अनुकूल और साधर्मियों को स्वाधीन कर लेना चाहिए। विघ्नों के आने से मन स्थिर नहीं रहता है। मन की स्थिरता के बिना सभी कार्य व्यर्थ होते हैं। अतः विघ्नों को दूर करके ही पूजा / विधान / प्रतिष्ठिादि कार्य करना चाहिए। अनुष्ठान की सभी क्रियायें मंत्रोच्चारण पूर्वक ही करना चाहिए क्योंकि मंत्रहीन क्रियायें । - - - - - -
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy