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________________ सयशन में बंधन काळापा 4 337 जीव का अजीव के साथ सम्बद्ध होना है। जैन दर्शन में अजीव का सम्बद्ध भौतिक संसार से है और सांख्य दर्शन अजीव को प्रकृति रूप में मानता है। इस प्रकार सांख्य एवं जैन दोनों दर्शन द्वैतवादी सिद्धांत को स्वीकार करते हुए जड़ एवं चेतन के पारस्परिक सम्बंध को बंधन मानते हैं। ___अविरति और तुष्टि : बंधन के अन्य कारण के रूप में जैन दर्शन अविरति को मानता है जिसमें जीव की धर्मानुकूल चारित्र धारण करने की शक्ति समाप्त हो जाती है और जीव अशुभ प्रवृत्तियों में लीन हो जाता है। सांख्य में वह श्रवण, मनन निदिध्यासन के मार्ग पर नहीं चलता, अतः सांख्य दर्शन में बंधन का दूसरा कारण तुष्टि की अवधारणा जैन दर्शन के अविरति के समान है जिस प्रकार अविरति में जीव धर्मानुकूल मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसी प्रकार तुष्टि के कारण भी जीव में धर्मानुकूल चारित्र धारण करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। अतः अविरति और तुष्टि में साम्यता है। दोंनो दर्शनों में इन कारणों को अविद्याजन्य स्वीकार किया गया है। प्रमाद और अशक्ति : जीव में आत्म शक्ति के अभाव के कारण उसकी आत्म चेतना क्षीण हो जाती है परिणामतः वह लक्ष्य से लिचलित हो जाता है इसे जैन दर्शन में प्रमाद कहा गया है और सांख्य दर्शन में जीव की यह अवस्था अशक्ति के रूप में है। इस अवस्था में जीव ज्ञान प्राप्ति में असमर्थ होता है और किसी भी विषय को निश्चयात्मक एवं क्रियात्मक रूप देने की क्षमता नहीं रहती। अशक्ति के कारण बुद्धि विकार जन्य होती है जिससे उसकी विवेक क्षमता प्रभावित होती है। प्रमाद की अवस्था में भी जीव विषयाशक्त होता है और उसकी विवेक शक्ति कुण्ठित हो जाती है। अतः प्रमाद एवं अशक्ति में पर्याप्त साम्य है। स्थिति, अनुभाव एवं प्राकृतिक बंध : जैन दर्शन में चार प्रकार के बंध में स्थिति व अनुभाग बंध कषाय जनित हैं। इन दोनों बंधन की अवस्थाओं में आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों के ठहराव एवं उनकी फल-प्रदान-शक्ति का निर्धारण होता है। सांख्य दर्शन में प्राकृतिक बंध के अंतर्गत ही स्थिति एवं अनुभाव की अवस्था विद्यमान है। सांख्य के अनुसार पुरुष में प्रकृति जन्य अहंकार उत्पन्न होता है और इस अहंकार के कारण जीव के अंतःकरण पर एक संस्कार निर्मित होता है जो लिंग या सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान होता है इस लिंग शरीर में कर्मों का प्रभाव संग्रहित होता है इसी प्रभाव के कारण जीव नया शरीर धारण करता है पुनः नया शरीर लिंग शरीर के प्रभाव के कारण अपने पूर्वकृत कर्मों के परिणाम को भोगता है। इस प्रकार कर्म का जीव पर प्रभाव और उस । निर्धारित समय पश्चात कर्म भोग (परिणाम) सांख्य दर्शन भी स्वीकार करता है अतः सांख्य के प्राकृतिक बंध में कर्म पुद्गलों की स्थिति एवं उनका परिणाम देना दोनो उपलब्ध हैं। जैन के अनुसार स्थिति बंध में कर्म पुद्गलों के ठहराव की समय सीमा तय होती है सांख्य के अनुसार भी सूक्ष्म शरीर एक निश्चित समय पश्चात ही अतीत । कर्मों का परिणाम देना शुरु करता है। इसके अतिरिक्त जैन दर्शन में बंधन रूप में योग की मान्यता भी सांख्य को स्वीकार है जैनदर्शन के अनुसार मन, वाणी एवं शरीर की प्रवृत्ति से कर्मों का आश्रव होकर बंधन होता है सांख्य के अनुसार भी प्रकृति में किसी भी प्रकार का सर्ग तभी होता है जब जीव प्रकृति से सम्पर्क करता है। इस आधार पर जैन एवं सांख्य दर्शन बंधन के सिद्धांत पर पर्याप्त साम्यता रखते हैं। सन्दर्भ सूची 1. तत्त्वार्थ वार्तिक 1/4/10 बंध्यतेऽन बंधन मात्रं वा बंधः 2. तत्त्वार्थसूत्र 812-3 सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान पुद्गलानादत्ते ।स बंधः।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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