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________________ 426 वियों के वातायन से मानसिक स्वस्थता। आयुर्वेद के अनुसार शरीर को धारण करनेवाले तीन दोष वात-पित्त-कफ, सात धातुएं (रस, रक्त, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र और तीन मल (स्वेद, मूत्र, पुरीव) जब तक शरीर में समानभाव से रहते हुए सन्तुलन बनाए रखते हैं तब तक शरीर में कोई विकार या रोग उत्पन्न नहीं होता है और शरीर निरोग या स्वस्थ बना रहता है। शरीर की स्वस्थता के साथ साथ मन की स्वस्थता एवं प्रसन्नता भी आवश्यक है । तब ही मनुष्य स्वस्थ कहलाता है। (20) इसी प्रकार जब तक कोई मानसिक दोष (रज या तम) अथवा कोई मानसिक विकार भाव (क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, जुगुप्सा, चिन्ता, द्वेष, मत्सर्य आदि) मनुष्य के मन में विकृति नहीं करते तब तक उसका मन अविकृत एवं स्वस्थ बना रहता है- यह मानसिक स्वास्थ्य है। जैन चिकित्सा विज्ञान में भी दो प्रकार का स्वास्थ्य - प्रतिपादित किया गया है। जैन धर्म में अध्यात्म की प्रधानता होने से तदनुरूप ये स्वास्थ्य के भेद प्रतिपादित किए गए हैं। शरीर में रहनेवाला मुख्य तत्व आत्मा है जो शरीर को चैतन्य प्रदान करता है, उसकी सम्पूर्ण स्वस्थता उसकी मुक्ति में है । उसीके लिए मनुष्य का सम्पूर्ण क्रिया कलाप एवं पुरुषार्थ है। मोक्ष ही मनुष्य का चरम या अन्तिम लक्ष्य है। इसी को आधार मानकर जैन धर्म में दो प्रकार के स्वास्थ्य, प्रतिपादित किये हैं- परमार्थ स्वास्थ्य और व्यवहार स्वास्थ्य । ऊपर भी उग्रादित्याचार्य के अनुसार इस द्विविध स्वास्थ्य में प्रथम परमार्थ प्रधान या मुख्य है और दूसरा व्यवहार स्वास्थ्य अप्रधान या गौण है। ऊपर आयुर्वेद के अनुसार जो शारीरिक और मानसिक, दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है उसका समावेश ! व्यवहार स्वास्थ्य में किया गया है श्री उग्रादित्याचार्य ने परमार्थ स्वास्थ्य के विषय में बतलाया है - आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से समुत्पन्न, अत्यदभुत, आत्यन्तिक, अद्वितीय विद्वानों के द्वारा अपेक्षित जो अतीन्द्रिय मोक्ष सुख है उसे परमार्थ स्वास्थ्य कहते हैं। द्वितीय व्यवहार स्वास्थ्य का निरूपण करते हुए कल्याणकारक में प्रतिपादित व्यवहार स्वास्थ्य आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांग में प्रतिपादित स्वरूप पुरूष के लक्षण के ही अनुरूप है। यथा मनुष्य के शरीर में सम अग्नि का रहना, स धातु का होना, दोषों (वात-पित्त-कफ) का सन्तुलन नहीं बिगड़ना, मलों स्वेद-मूल-पुरुष की क्रिया (विसर्जन) उचित रूप से होना, आत्मा और इन्द्रियों की प्रसन्नता होना, मनः प्रसाद (मन की प्रसन्नता) होना - यह व्यवहार स्वास्थ्य है। (22) इस प्रकार जैन धर्म के अनुसार स्वस्थ्य मनुष्य सभी व्याधियों, विकारों और मानसिक दोषों (विकारों) मुक्त होता है। इसी का समर्थन करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य का कथन है- स्वस्थ शरीर का लक्षण क्या है? जब मनुष्य | रोगों से रहित शरीर को धारण करता है तब वह स्वस्थ कहलाता है । यह सुशास्त्र (आयुर्वेद) की आज्ञा से कहा गया है। ( 23 ) उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनाचार्यो या जैन धर्म की दृष्टि से आध्यात्मिक स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण और प्रधान है जिसमें विषयातीत सुख समाविष्ट है। इसके विपरीत व्यवहारज स्वास्थ्य भौतिक है जो शरीर, मन और इन्द्रियाधारित है । इस व्यवहारज (भौतिक) स्वास्थ्य में शरीर की उन समस्त क्रियायें, जो अहर्निश लही रहती हैं। की प्राकृत अवस्था निर्देशित है। इस व्यवहारज (भौतिक) स्वास्थ्य के माध्यम 'जब शरीर और मन स्वस्थ रहता है तब ही तन्मना होकर पारमार्थिक ( आध्यात्मिक ) स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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