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________________ नियमापद (विकिमान 4191 । अवयवों अंगों का ज्ञान प्राप्त किया जाय, उनके समस्त क्रिया व्यापार को जाना समझा जाय, उनमें होने वाले विभिन्न प्रकार की विकृति और उसके परिणाम स्वरूप होनेवाली विभिन्न व्याधियों के कारणों एवं उपचार का ज्ञान प्राप्त किया जाये। इन सब विषयों का अविचल एवं सम्पूर्ण ज्ञान का संग्रह करने वाले शास्त्र को आयुर्वेद । नाम दिया गया है जो आठ अंगों में विभाजित है। प्राचीन काल में साधु सन्तों ऋषि मुनियों ने आयुर्वेद शास्त्र के । ज्ञान की अनिवार्यता का अनुभव किया इसमें समुचित विस्तार किया। जैन धर्म में जिस प्रकार अध्यात्म विद्या, दर्शन शास्त्र, नीति शास्त्र, आचार शास्त्र, विज्ञान आदि के तल या बीज विद्यमान हैं उसी प्रकार आयुर्वेद एवं चिकित्सा विज्ञान के बीज भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि अन्य लौकिक विद्याओं की भांति आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान) को भी जैन धर्म में अपेक्षित स्थान प्राप्त है। जैन धर्म के प्राचीन वाङ्मय (आगम) का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनमें इस विद्या का भी विस्तार पूर्वक सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। उत्तरोत्तर काल में समाज में उसका पर्याप्त विकास होने के भी अनेक प्रमाण मिलते हैं। ____ आयु ही जीवन है, आयु का वेद (ज्ञान) ही आयुर्वेद है, अतः आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवन विज्ञान है। यह विज्ञान स्वस्थ और रोगी दोनों के लिए उपादेय है, क्योंकि एक ओर इस शास्त्र में जहाँ स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा की दृष्टि से आवश्यक हितकारी बातों और नियमों का उपदेश-निर्देश निहित है वहाँ दूसरी ओर कदाचरण या अहित आहार विहार के कारण जो लोग अस्वस्थ या रोगी हो जाते हैं उनके रोग के उपशम हेतु समुचित उपचार चिकित्सा आदि का उपदेश-निर्देश भी यह शास्त्र सांगोपांग रूप से करता है। यह शास्त्र (आयुर्वेद) यद्यकि लौकिक या भौतिक विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है, क्योंकि शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा और शरीर में विकार या रोग उत्पन्न होने पर उसके उपशमनार्थ समुचित चिकित्सा करना आयुर्वेद का लौकिक (भौतिक) उद्देश्य है, तथापि पारलौकिक निःश्रेयस की दृष्टि से आत्मा की मुक्ति और आध्यात्मिकता से अनुप्राणित .जीवन की यथार्थता के लिए सतत प्रयत्न करना ही उसके मूल में निहित है। यही कारण है कि आयुर्वेद भौतिकवाद की परिधि से निकल कर आध्यात्मिकता की श्रेणी में परिगणित है। __ आयुर्वेद चूँकि जीवन विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान होने से परोपकारी शास्त्र है, अतः वह जैन धर्म के अन्तर्गत उपादेय है। यही कारण है कि अध्यात्म, धर्म, दर्शन, आचार, शास्त्र, नीति शास्त्र, ज्योतिष आदि अन्यान्य विद्याओं की भाँति वैद्यक विद्या भी जैन धर्म के अन्तर्गत परिगमित एवं प्रतिपादित है। जैन धर्म में इस शास्त्र या विद्या को 'प्राणावाय' या 'प्राणायु' की संज्ञा से व्यवहत किया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म के अन्तर्गत 'प्राणावाय' या प्राणायु के नाम से चिकित्सा विज्ञान का विकास स्वतन्त्र रूप से लोककल्याण हेतु हुआ। तीर्थंकर महावीर के पश्चात् उत्तर काल में अन्यान्य आचार्यों के द्वारा जिन सिद्धान्त ग्रंथों की रचना की गई उनमें से अनेक ग्रंथो में 'प्राणावाय' की भी चर्चा की गई है। · मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा की दृष्टि से तथा अहित विषयों में शरीर की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जैन धर्म ने मनुष्य के दैनिक आचरण तथा उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जो शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक विकास एवं सात्विक जीवन निर्वाह के लिए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। अतः स्वास्थ्य रक्षा एवं आरोग्य की दृष्टि से जैन धर्म चिकित्सा विज्ञान के अत्यन्त निकट है। मनुष्य के आहार और आचार के सम्बन्ध में जैन धर्म में प्रतिपादित नियम विज्ञान की कसौटी पर सदैव खरे उतरे हैं जिससे उनका आधार सुदृढ़ हुआ है। आगम वाङ्मय को सामान्यतः आध्यात्मिक या धर्म शास्त्र के रूप में माना जाता है। उसमें आध्यात्मिक ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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