SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1408 मतियाकवातायन एवं भाषाविज्ञान (अपितु समस्त संस्कृत-वाङ्मय) का अध्ययन एवं मूल्यांकन तब तक शेष ही माना जायेगा, जब तक प्राकृत-साहित्य में सन्निहित ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिच्छवियों | का, देश और काल के आधार पर, समानान्तर अनुशीलन नहीं किया जायेगा। सहज जन-जीवन और सरल | जनभाषाओं की विभिन्न विच्छित्तिपूर्ण झलकियों के अतिरिक्त प्राकृत-साहित्य में भारतीय दर्शन, आचार, | नीति, धर्म और संस्कृति की सुदृढ़ एवं पूर्ण विकसित परम्परा के दर्शन होते हैं। इतना ही नहीं, अगर दूँढ़िए तो, इसमें जटिल-ग्रन्थिल आध्यात्मिक और भौतिक समस्याओं के सुखावह समाधान भी मिल जायेंगे। प्राकृत में संस्कृत के समानान्तर अध्ययन के तत्त्व । प्राकृत-साहित्य में साहित्य की विभिन्न विधाएँ- जैसे काव्य, कथा, नाटक, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, दूतकाव्य, छन्द, अलंकार, वार्ता, आख्यान, दृष्टान्त, उदाहरण, संवाद, सुभाषित, प्रश्नोत्तर, समस्यापूर्ति, प्रहेलिका प्रभृति-पाई जाती हैं। इस साहित्य में प्राप्य कर्मसिद्धान्त, खण्डन-मण्डन, विविध सम्प्रदायों की मान्यताएँ आदि हजारों वर्षों का इतिहास अपने में उपसंहृत किये हुए हैं। जन-जीवन की विभिन्न धारणाएँ, जीवन-मरण, रहन-सहन, आचार-विचार आदि के सम्बन्ध में अनेक पुरातन बातों की जानकारी के लिए प्राकृत-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है। आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म-साहित्य का अध्ययन वैदिक उपनिषदों के अध्ययन में पर्याप्त सहायक है। कुन्दकुन्दाचार्य के प्रसिद्धतर ग्रन्थ 'समयसार के अध्ययन के बिना अध्यात्म और वेदान्तशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन अपूर्ण ही माना जायगा। कहना तो यह चाहिए कि भारतीय चिन्तन का सर्वांगपूर्ण ज्ञान, जो संस्कृत-वाङ्मय में निहित है, प्राकृत-साहित्य के ज्ञान के बिना एकपक्षीय ही रह जायगा। निष्कर्ष यह कि अन्वेषण और गवेषण के क्षेत्र में प्राकृत-साहित्य एक विराट् सारस्वत कोष ही प्रस्तुत कर देता है। प्राकृत-साहित्य : भारतीय संस्कृति का मानचित्र प्राकृत-साहित्य के अधीती विद्वान् डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के अभिमत के अनुसार, प्राकृत-साहित्य में जहाँ एक ओर ऐहिक समस्याओं का समृद्ध चिन्तन पाया जाता है, वहीं दूसरी ओर पारलौकिक रहस्यपूर्ण समस्याओं के विश्वसनीय समाधान भी मिलते हैं। धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण में प्राकृत-साहित्य की द्वितीयता नहीं है, तो अर्थनीति-राजनीति के विश्लेषण में इस साहित्य की एकमेवता ही सिद्ध होती है। व्यापारिक कौशल के उदाहरण एवं शिल्पकला के मनोमोहक निखार की दृष्टि से भी प्राकृत-साहित्य की श्रेष्ठता अक्षुण्ण है। प्राकृत-साहित्य लोक-सौन्दर्य के मूल्यांकन के प्रति विशेषाग्रह रखता है, अतएव इसमें मानवता के पोषक तत्त्व-दान, तप, शील, सदाचार, सद्भाव आदि का निदेश बड़े मनोरम और मौलिक ढंग से आकलित हुआ है। इस विवेचना के आधार पर, अगर प्राकृत-साहित्य को समग्र भारत के सांस्कृतिक इतिहास के सर्वांगीण मानचित्र का प्रस्तोता कहा जायगा, तो अतिशयोक्ति न होगी। AM
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy