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________________ 3851 1 24 चारितकाव्य, 15-16 मुक्तककाव्य, 8 सट्टक, 30-32 कथाग्रन्थ व्याकरण एवं छन्द आदि फुटकर साहित्य के 30-35 ग्रन्थ ही अभी तक प्रकाशित हो पाये हैं। किन्तु इनमें से कई अनुपलब्ध हो गये हैं। प्रकाशित सभी प्राकृत ग्रन्थ, अपभ्रंश ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध भी नहीं है। 21वीं शताब्दी के अध्ययन के लिए अब तक प्रकाशित प्राकृत- अपभ्रंश के समस्त ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध कराना आवश्यक है। इसके लिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग भी किया जा सकता है। ज्ञात हुआ है कि अर्धमागधी के सम्पूर्ण आगमों को कम्प्यूटर में भरने की योजना तैयार की जा रही है। इसी तरह प्राचीन पाण्डुलिपियों का सूचीकरण भी कम्प्यूटर फीडिंग के माध्यम से किया जा सकता है। इन कार्यो में जो संस्थान व कार्यकर्ता आगे आयेंगे, 21वीं सदी का प्राकृत अध्ययन उनके सहारे ही चलेगा। 21वीं सदी में प्राकृत अध्ययन की प्रगति का प्रमुख आधार धर्म एवं सम्प्रदाय न होकर प्राकृत साहित्य का । भाषात्मक एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होगा। प्राकृत भाषा की समृद्धि में जैन परम्परा के कवियों एवं आचार्यों का । प्रमुख योगदान अवश्य रहा है। किन्तु जनभाषा होने के कारण प्राकृत भाषा भारतीय भाषाओं के विकास की धुरी । है। संस्कृत साहित्य का अध्ययन प्राकृत के बिना अधूरा है। संस्कृत नाटकों में 60 प्रतिशत से अधिक प्राकृत का प्रयोग है। संस्कृत काव्यग्रन्थों के उदाहरण प्रायः प्राकृत की गाथाओं द्वारा दिये गये हैं। संस्कृत भाषा में शब्दकोश 1 में प्राकृत से बने हजारों शब्द समाहित हैं। यही स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं की है। अतः प्राकृत के शोध का | अब नया क्षेत्र प्राकृत का भाषात्मक अध्ययन होगा। इस दिशा में देश-विदेश के विद्वानों ने जो कार्य किया है, । उसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। प्राकृत भाषाओं का वृहत् व्याकरण ग्रन्थ तैयार किये जाने की आवश्यकता है, जिसे विद्वानों की कोई टीम मिलकर ही कर सकती है। डॉ. पिशेल एवं अन्य जर्म विद्वानों के प्राकृत भाषा सम्बन्धी ग्रन्थों तथा डॉ. पी.एल. वैद्या, डॉ. ए.एम. घाटगे, डॉ. सुकुमार सेन, डॉ. कत्रे आदि भारतीय विद्वानों की शोध-पूर्ण कृतियों के तलस्पर्शी अध्ययन के उपरान्त उपलब्ध प्राकृत साहित्य के आधार पर जो नया प्राकृत-व्याकरण ग्रन्थ तैयार होगा, वह 21वीं सदी के अध्ययन को गति प्रदान करेगा। बहुत सम्भव है कि 21वीं सदी में ही ऐसा ग्रन्थ तैयार हो पाये। प्राकृत व्याकरण के साथ-साथ तुलनात्मक प्राकृत शब्दकोश की भी नितान्त आवश्यकता है। पूना में डॉ. घाटगे के निर्देशन में यह शब्दकोश तैयार हो रहा है। किन्तु उसके कार्य की गति के अनुसार प्रतीत होता है कि उस शब्दकोश के दर्शन काफी समय के बाद में ही हो सकेंगे। अर्थ की व्यवस्था होने पर भी विद्वानों का अभाव एक चिन्तनीय विषय है। प्राकृत अध्ययन के विकास के लिए प्राकृत के श्रमनिष्ठ एवं विश्रुत विद्वानों की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही आवश्यकता प्राकृत-शिक्षण एवं शोध से जुड़ी हुई अथवा प्राकृत के नाम का उपयोग करनेवाली संस्थाओं को जीवन्त होने की है। विश्वविद्यालयों में प्राकृत अध्ययन को बढ़ावा देने की दृष्टि से आठ-नौ स्वतन्त्र जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग एवं चेयर्स स्थापित हैं। विगत कुछ वर्षों में कुछ नयी प्राकृत संस्थाएं भी उदित हुई हैं। उनमें राजस्थान प्राकृत अकादमी, जयपुर, कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली, आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर, प्राकृत-अध्ययन प्रसार संस्थान, उदयपुर, अपभ्रंश एकेडेमी जयपुर, प्राकृत ज्ञानभारती एजुकेशन ट्रस्ट बैंगलोर एवं सेवा मंदिर, जोधपुर आदि प्रमुख हैं। 21वीं सदी में इन प्राकृत संस्थाओं की संख्या में वृद्धि हो । सकती है, क्योंकि प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता अपनी एक अलग संस्था चाहता है और एक संस्था, दूसरी संस्था के । साथ सहयोग करके चलना पसन्द नहीं करती। पूरे साधन किसी संस्था के पास नहीं है। कहीं अर्थ का अभाव है
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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