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________________ 1370 5 मतियाक वातायना । ___ जैन आचारसंहिता की दृष्टि से पर्यावरण की समतुला की समस्या आसानी से हल की जा सकती है। जैन आचारमें निर्देशित व्रत केवल सिद्धांत के विषय नहीं है। उसमें आचार ही का महत्त्व है। पर्यावरण की दृष्टि से जैनदर्शन का १. अहिंसा, २. अपरिग्रह और भोगोपभोगपरिमाण तथा ३. मैत्रीपूर्ण जीवनव्यवहार के आचार विषयक नियम ज्यादा उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। ____ जैन साधना में धर्म के दो रूप माने गये हैं। एक श्रुतधर्म और दूसरा चारित्रधर्म। श्रुतधर्म का अर्थ है जीवादि नव तत्त्वों के स्वरूपका ज्ञान और उनमें श्रद्धा और चारित्रधर्म का अर्थ है संयम और तप। जैन साधु और गृहस्थ श्रावक दोनों धर्मों का पालन करते हैं, फर्क इतना ही है कि साधु इसे महाव्रतादि रूपसे समग्रतया उसका पालन करते हैं, जबकि श्रावक अणव्रतादि रूप से आंशिक रूप में पालन करते हैं। आचारांग में अहिंसा के सिद्धांत को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। उसमें अहिंसा को आर्हत् प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाय? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है; वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल हैं। अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणी स्वभाव है। ___ महावीर स्वामीने कहा है 'सव्वे सत्ता न हंतवा' – किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिये। साधु और श्रावकों के आचार के अधिकांश नियम इस दृष्टि से ही तय किए गये हैं। जैसे कि वनस्पति के जीव और उसके आश्रित जीवों की हिंसा के दोष से मुक्त रहने के लिये साधुओं के लिये तो कंदमूल, शाकसब्जी जैसा आहार वर्म्य माना गया है। गृहस्थ श्रावकों के लिये पर्वादि दिनों पर उसका निषेध है। ' रात्रिभोजन सामान्य रूप से अनुचित तो है ही। रात्रिके समय सूर्यप्रकाश नहीं होने के कारण वातावरण में जीवजंतु की उत्पत्ति-उपद्रव बढ़ जाते हैं। (सूर्यप्रकाश में ऐसी शक्ति है जो वातावरण का प्रदूषण और क्षुद्र जीवजंतुओं का नाश करती है।) इन जंतुओं की हिंसा के भयसे रात्रिभोजन वर्धमान माना गया है। साधओं के लिये वर्षा की ऋत में एक ही जगह निवास करनेका आदेश है, ताकि मार्ग में चलने से छोटे जीवजंतु कुचल न जायें। जैनदर्शन में यह अहिंसा और सर्व जीवों के प्रति आत्मभावका विशेषरूप से उपदेश दिया गया। वनस्पति भी सजीव होने के नाते अन्य जीव-जन्तुओं के साथ, उसके प्रति भी अहिंसक आचार-विचार का प्रतिपादन किया गया। एक छोटे से पुष्प को शाखा से तोड़ने के लिये निषेध था – फिर जंगलों को काँटनेकी तो बात ही कहाँ? जलमें भी बहुत छोटे छोटे जीव होते हैं- अतः जलका उपयोग भी सावधानी से और अनिवार्य होने पर ही करने , का आदेश दिया गया। रात्रि के समय दीप जलाकर कार्य करने का भी वहाँ निषेध है। दीपक के आसपास अनेक छोटे छोटे जंतु उड़ने लगते हैं और उनका नाश होता है, अतः जीवहिंसा की दृष्टि से दीपक के प्रकाशमें कार्य । करना निंदनीय माना गया। . जैनदर्शन की आचारसंहिता के निषेधों के कारण स्वाभाविक ढंग से ही वनस्पति, जल, अग्नि आदि तत्त्वों का उपयोग मर्यादित हो गया। इन आचारगत नियमों के कारण वनस्पति और जीव-जंतु तथा अन्य प्राणियों की रक्षा होती है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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