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________________ 1366 स्मृतियों के वातायन से पल्लवित करके प्रत्येक दिन के शुभाशुभ कृत्यों का प्रहरों में निरूपण किया है। इसी प्रकार रात्रि के भी (१) सावित्र (२) धुर्य (३) दायक (४) यम (५) वायु (६) हुताशन (७) भानु (८) वैजयन्त (९) सिद्धार्थ (१०) सिद्धसेन (११) विक्षोभ (१२) योग्य (१३) पुष्पदगन्त, (१४) सुगंधर्व और (१५) अरुण ये पन्द्रह मुहूर्त हैं। इनमें सिद्धार्थ, सिद्ध,न. दात्रक और पुष्पदन्त शुभ होते हैं शेष अशुभ हैं। सिद्धार्थ को सर्वकार्यो का सिद्ध करनेवाला कहा है। ज्योतिष शास्त्र में इस प्रक्रियाका विकास आर्यभट्ट के बाद निर्मित फलित ग्रन्थों में ही मिलता है। तिथियों की संज्ञा भी सूत्ररूप से धवलामें इस प्रकार आयी है- नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता (तुका) और पूर्णा ये पांच संज्ञाएं पन्द्रह तिथियों की निश्चित की गयी हैं, इनके स्वामी क्रम से चन्द्र, सूर्य, चन्द्र, आकाश और धर्म बताये गये हैं। पितामह सिद्धान्त, पौलस्त्य सिद्धान्त और नारदीय सिद्धान्त में इन्हीं तिथियों का उल्लेख स्वामियों सहित मिलता है। पर स्वामियों की नामावली जैन नामावली से सर्वथा भिन्न है। इसीप्रकार सूर्यनक्षत्र, चान्द्रनक्षत्र, बार्हस्पत्यनक्षत्र एवं शुक्रनक्षत्र का उल्लेख भी जैनाचार्यों ने विलक्षण सूक्ष्मदृष्टि और गणित प्रक्रिया से किया है। भिन्न-भिन्न ग्रहों के नक्षत्रों की प्रक्रिया पितामह सिद्धान्त में भी सामान्यरूप से बतायी गयी है। अयन सम्बन्धी जैन ज्योतिषकी प्रक्रिया तत्कालीन ज्योतिष ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक विकसित एवं मौलिक है। इसके अनुसार सूर्य का चारक्षेत्र सूर्य के भ्रमण मार्ग की चौड़ाई-पांच सौ दश योजन से कुछ अधिक बताया गया है। इसमें से एक सौ अस्सी योजन चारक्षेत्र तो जम्बूद्वीप में हैं। और अवशेष तीन सौ तीस योजन प्रमाण लवणसमुद्र में है, जोकि जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए है। सूर्य के भ्रमण करने के मार्ग एक सौ चौरासी हैं इन्हें शास्त्रीय भाषा में वीथियाँ कहा जाता है। एक सौ चौरासी भ्रमण भागों में एक सूर्य का उदय एक सौ तेरासी बार होता है। जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा माने गये हैं। एक भ्रमण मार्ग को तय करने में दोनों सूर्यों को एक दिन और एक सूर्यको दिन अर्थात् साठ मुहूर्त लगते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में तीन सौ छयासठ और एक अयन में एक सौ तेरासी दिन होते हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अन्तिम आभ्यन्तर मार्ग से बाहरकी ओर निकलता हुआ लवणसमुद्रकी तरफ जाता है तब बाहरी लवणसमुद्रस्थ अन्तिम मार्ग पर चलने के समयको दक्षिणायन कहते हैं और वहां तक पहुंचने में सूर्य को एक सौ तेरासी दिन लगते हैं। इसी प्रकार जब सूर्य लवणसमुद्र के बाह्य अन्तिम मार्ग से घूमता हुआ भीतर । जम्बूद्वीप की ओर आता है तब उसे उत्तरायण कहते हैं और जम्बूद्वीपस्थ अन्तिम मार्ग तक पहुंचने में उसे एक । सौ तेरासी दिन लग जाते हैं। पञ्चवर्षात्मक युगमें उत्तरायण और दक्षिणायन सम्बन्धी तिथि नक्षत्र का विधान' सर्वप्रथम युग के आरंभमें दक्षिणायन बताया गया है यह श्रावण कृष्णा प्रतिपादाको अभिजित् नक्षत्रमें होता है। दूसरा उत्तरायण माघ कृष्णा सप्तमी हस्त नक्षत्रमें, तीसरा दक्षिणायन श्रावण कृष्णा त्रयोदशी मृगशिर नक्षत्रमें, चौथा उत्तरायण माघशुक्ला चतुर्थी शतभिषा नक्षत्रमें, पांचवा दक्षिणायन श्रावण शुक्ला दशमी विशाखा नक्षत्रमें, छठवां उत्तरायण माघ कृष्णा प्रतिपदा पुष्य नक्षत्रमें, सातवां दक्षिणायन श्रावण कृष्णा सप्तमी रेवती नक्षत्रमें, आठवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल नक्षत्रमें, नवमां दक्षिणायन श्रावण शुक्ल नवमी पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में और दशवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी कृतिका नक्षत्र में माना गया है। किन्तु तत्कालीन ऋक्, याजुष और अथर्व ज्योतिष में युग के आदि में प्रथम उत्तरायण बताया है। यह प्रक्रिया अब तक चली आ रही है। कहा नहीं जा सकता कि युगादि में दक्षिणायन और उत्तरायण इतना वैषम्य कैसे हो गया? जैन मान्यता के अनुसार जब सूर्य उत्तरायण होता है- लवण समुद्रके बाहरी मार्ग से भीतर जम्बूद्वीप की ओर जाता है- उस समय क्रमशः शीत घटने लगता है और गरमी बढ़ना शुरु हो जाती है। इस सर्दी और गर्मी के । वृद्धि-हास के दो कारण हैं, पहला यह है कि सूर्य के जम्बूद्वीप के समीप आने से उसकी किरणों का प्रभाव यहां ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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