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________________ 330 माता के नातामा युवावस्था पार कर प्रौढ़ावस्था भी पार करने तक पहुँच गए। तब तक उन्हें अपनी परिणीता धर्मपत्नी के सावर्य का बोध ही न रहा। टीका पूर्ण होने पर उस सेविका से जब वार्तालाप किया तब यह भाव हुआ कि यह मेरी विवाहिता पत्नी है। उन्हें अपने गृहस्थ धर्म का निर्वाह न कर सकने का थोड़ा खेद भी हुआ होगा, परन्तु अपने इष्ट कार्य की सिद्धि का जो आनन्द उन्हें संतोष दे रहा था, वह इस सहज विस्मृति से धन्य हो गया। संस्कृत भाषा के इस महान विद्वान 'वाचस्पति' ने अपनी इस टीका का नाम ही अपनी पत्नि के नाम पर 'भामती' रख दिया। इस प्रकार के दार्शनिक और विचारक सदैव पूजनीय रहेंगे। ___ 'सुकरात' भी महान विचारक हुए। सुकरात का अन्तस कितना करूणामय था इसका इतना ही उदाहरण पर्याप्त है कि सीने पर उठे फोड़े में जो कीड़े पड़ गये थे वे बाहर निकल पड़ें। तो सुकरातने यह कहते हुए उन कीड़ों को पुनः पके फोड़े के मुँह में रखने लगे कि इनकी खुराक यही है। ___ दार्शनिक तो स्वयं आचरण कर अपने चिन्तन की सत्यता को अनुभूत करता है। इससे समाज का कल्याण स्वयमेव हो जाता है। जहां घृणा-द्वेष-तिरस्कार रूप भाव ही समाप्त हो जाते हैं वहाँ सुख-साता-आनन्दउत्साह-उल्लास अपने आप प्रगट हो जाता है। परन्तु कालान्तर में ऐसे दार्शनिकों और साधु सन्तों के अनुयायी कहे जाने वाले पूजक, अपना अहंकार पोषण करने और भद्रता की आड़ में दूसरों का शोषण करने के नाना उपाय सोचने लग जाते हैं और तदनुसार नए-नए लेखों और प्रवचनों में शब्दों और शब्दार्थों को तोड़ते मरोड़ते रहते हैं। अपनी इच्छा के अनुकूल अर्थ करने लग जाते हैं। इसमें दोष उन महान दार्शनिकों का नहीं, वरन् हम जैसे एकांतवादी और अहंकारी, महत्वाकांक्षी लोगों का है। जाति, कुल, सम्प्रदाय मत और रूढ़ियों के बंधन को साहस कर तोड़ने वाला ही दार्शनिक बन पाता है। परंतु समाज ऐसे लोगों का आजीवन अनादर ही करती है। समाज ने सदैव समाज में चलने वाली मान्यताओं और परम्परागत रूढ़ियों के पोषण कर्ता और प्रसार करने वालों को ही गले लगाया है और मान्य किया है। भले ही उससे अन्य समाज के साथ घृणा, द्वेष और वैमनस्यता बढ़ती रही हो। एक वर्ग विशेष अन्य दूसरे वर्ग के साथ क्यों टकराता है-घृणा करता है-द्वेष करता है और अपने रीति रिवाजों की तुलना में अन्य दूसरे के रीति रिवाजों को हीन समझता है। इसका कारण अपने स्वयं की समाज के पक्ष से अति राग, आसक्ति और आक्रोश ही है। __जब तक हम निष्पक्ष भाव से अन्य दृष्टिकोणों से वस्तु संबंध और पदार्थों के परस्पर व्यवहार का चिन्तन मनन नहीं करेंगें तब तक हम सहिष्णु नहीं हो सकते हैं। परस्पर व्यवहार और वस्तु के स्वरूप का सभी प्रकार से चिन्तन करने और जानने समझने की भावना दृढ़ होना ही एक दार्शनिक का प्रगट होना है। अंतरंग में- चित्त में- हृदय की गहराई में-बुद्धि और विवेक में सहजता हो जाना और हर संभव बात को जानने समझने लगना यही विद्वत्ता है। अपने ही समान सबको सुखी रहने की चाहना करने वाला और तदनुसार उद्यम करने वाला ही दार्शनिक होता है। स्यावाद और अनेकांत इसी स्वतंत्र चिन्तन का नाम है। ___ जब आज हम एक बात पर ध्यान देते हैं कि मुसलमानों ने हिन्दुस्तान में आकर अपना राज्य कायम किया तो सन् 1400 से लेकर 1800 तक लगभग चार सौ साल तक हिन्दुओं, जैनों आदि पर बहुत अत्याचार किए और बलात जाति परिवर्तन कराया। इसका अर्थ यह तो नहीं हो जायेगा कि मुहम्मद साब का सोच और उनका दर्शन बलात अपनी बात मनवाने का अभिप्राय लिये हुए था। दार्शनिक कभी भी अपनी बात मनवाने की कामना नहीं करता है, न ही जबरन उपदेश करता है, न ही अपने अनुयायी बनाता है। दार्शनिक तो घर गृहस्थी से munmun ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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