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________________ |313 जैन साहित्य में भिन्न (Fractions) डॉ. श्री मुकुटबिहारी अग्रवाल विषय प्रवेश- भारत वर्ष में भिन्नों का ज्ञान बहुत प्राचीन काल से मिलता है, प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में 1/2 (अर्थ) और 3/4 (त्रिपाद)' भिन्नों का प्रयोग किया गया है। मैत्रायणी-संहिता में एक स्थान पर 1/16 (कला), 1/12 (कुष्ठ) 1/8 (शफ) और 1/4 (पाद) भिन्नों की चर्चा आयी है। जैन आगमों में भी भिन्नों का बड़ी प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है। प्राचीन साहित्य में भिन्नों को 'कलासवर्ण' के नाम से पुकारा जाता था। इसका उपयोग लोक व्यवहार चलाने के लिये तो होता ही है, परन्तु अध्यात्मिक क्षेत्र में भी इसका व्यवहार प्राचीन काल से होता चला आ रहा है, जैनाचार्यों का कहना है कि निकम्मा मन प्रमाद करता है, परन्तु भिन्नों की गुत्थियों में उलझकर मन स्थिर हो जाता है और उसको अनावश्यक बातों को सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। जैनवाङ्मय में बड़ी-बड़ी भिन्नों का व्यापक प्रयोग प्राचीन काल में साधारण भिन्न पूर्णतः विकसित नहीं हो पायी थी, 'वेदांग ज्योतिष' में इस सम्बन्ध में केवल 2/61 का आभास मिलता है। शुल्व सूत्र में भी साधारण भिन्नों की झलक दिखलाई पड़ती है। परन्तु बड़ी बड़ी भिन्नों का व्यापक प्रयोग जैन आगमों में सरलता से उपलब्ध है। ‘सूर्य प्रज्ञप्ति' में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। यथा• 52518 $ 9964585 • 10065453 अनुचित (Improper) एवं जटिल (Complex) भिन्नै भी जैन साहित्य में सबसे । पहले दृष्टिगोचर होती हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में अनुचित भिन्नों के उदाहरण इस प्रकार हैं। । 548 547 तथा 611 जटिल भिन्नों के भी अनेक उदाहरण सूर्यप्रज्ञप्ति में मिलते हैं यथा 61 61
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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