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________________ 309 । प्रसिद्ध हुई। ऐसे चमत्कारी स्तोत्रों में समन्तभद्र का 'स्वयंभू स्तोत्र', पूज्यपाद का 'शान्त्यष्टक' पात्रकेशरी का 'पात्रकेशरी स्तोत्र' आचार्य मानतुंग का भक्तामर स्तोत्र. धनंजय का विषापहार, वादिराज का ‘एकीभाव' मल्लिषेण का 'ऋषिमंडल' तथा कुमुदचंद्र का 'कल्याण मंदिर' उल्लेखनीय हैं। ___ जैन स्तोत्र साहित्य के अध्ययन से एक तथ्य स्पष्ट है कि यद्यपि कतिपय स्तोत्रों में दार्शनिकता, आध्यात्मिकता तथा हितोपदेशिकता का प्रभाव परिलक्षित होता है किन्तु अधिकांश स्तोत्र भक्तिपरक हैं। इन स्तोत्रों में भक्त का विनम्र आत्म निवेदन, पूर्ण समर्पण एवं आराध्यदेव के गुण संकीर्तन की भावोर्मियाँ प्रवल वेग से उद्धेलित हैं। शिल्प विधान की दृष्टि से भी ये स्तोत्र उच्च कोटि के हैं। भाषा का भावानुकूल प्रयोग, सार्थक अलंकार योजना, रसानुकूल छंद-विधान रचनाकारों के काव्य कौशल का प्रत्यक्ष प्रमाण है। धर्मनिष्ठ होने से जहाँ एक ओर ये स्तोत्र प्रत्यक्ष रूप से सदाचार, अहिंसा, भक्ति आदि के माध्यम से श्रेय के साधक हैं वहाँ दूसरी ओर काव्य सरणि . का अवलम्बन लेने से प्रेय अर्थात् सद्यः आनंद प्राप्ति में भी सहायक हैं। विस्तारभय से समस्त प्रमुख स्तोत्रों का विवेचन करना तो संभव नहीं है तथापि कतिपय बहुप्रचलित स्तोत्रों की मनोरम झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूँ। भक्तामर स्तोत्र : श्री मानतुंगाचार्य द्वारा विरचित भक्तामर स्तोत्र जैन समाज में सर्वाधिक प्रचलित स्तोत्र है। अशिक्षित भक्तों को भी यह स्तोत्र कंठस्थ है और वे प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ करके ही अपने दिन का शुभारंभ करते हैं। कहा जाता है कि राजा भोज ने आचार्य मानतुंग के स्वाभिमानी व्यक्तित्व से असंतुष्ट होकर उन्हें कारागार में बंदी बनाकर अडतालीस ताले लगवा दिए थे। आचार्यश्री ने शान्त भाव से इस उपसर्ग को सहन करते हुए कारागार में ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की स्तुति में 48 श्लोकों की रचना की। निश्छल भक्ति के प्रभाव से स्तोत्र का पाठ करते ही 48 ताले टूट गये। आचार्य श्री बंधनमुक्त होकर कारागार से बाहर आ गये। । इस स्तोत्र की भाव भूमि तीन भागों में विभक्त की जा सकती है - भक्त का विनम्र समर्पण, आराध्य देव का समवशरण वैभव और समस्त आधि, व्याधि से मुक्ति की प्रार्थना। यथास्थान अलंकारों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति सशक्त एवं मर्मस्पर्शी हो गई है। एक उदाहरण दृष्टव्य है अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास पाम त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम्। यत्कोकिलः किल मघौ मधुरं विरौति, तवारूचामुकलिका-निकरैक हेतुः॥6॥ विषापहार स्तोत्र : महाकवि धनंजय रचित विषापहार स्तोत्र भी चमत्कारी स्तोत्र है। मंदिर में पूजा में लीन कविराज धनंजय के पुत्र को सर्प ने डस लिया। घर से कई बार समाचार आने पर भी कविराज पूजन से विरत नहीं हुए। पत्नी ने कुपित होकर बच्चे को मंदिर में उनके सामने रख दिया। पूजन से निवृत्त होकर कवि ने भगवान के सम्मुख ही विषापहार स्तोत्र की रचना की। स्तोत्र पूरा होते-होते बालक निर्विष होकर उठकर बैठ गया। मंदाक्रान्ता छंद में निबद्ध चालीस श्लोकों में कवि तीर्थंकर ऋषभनाथ की स्तुति करता है लेकिन कोई याचना नहीं करता। भक्ति निष्काम होनी चाहिए। फल तो स्वयंमेव प्राप्त होगा। निष्काम भक्ति के महत्त्ववर्णन में कवि का । उक्ति वैचित्र्य दृष्टव्य है। इति स्तुति देव, विधाय दैन्याद। बरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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