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________________ 273 - देव मूढ़ता, पाखंडमूढ़ता, आठ मद, छः अनायतन (कुदेव, कुदेव का मंदिर, कुशास्त्र, कुशास्त्र के धारक,खोटी तपस्या व खोटी तपस्या करनेवाले) आदि जो सम्यग्दर्शन को मलिन करनेवाले पच्चीस दोष हैं उनका त्याग करने की व्यवस्था बताई है ताकि उनमें धन आदि खर्च न करें व तन व मन को भी उधर न लगाएँ। चारों अनुयोगों से पदार्थं के सच्चे स्वरूप को जानने से सम्यग्ज्ञान होता है जो जीवन व्यवस्था के लिए मार्गदर्शक होता है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील व परिग्रह के कार्यों में उपभोग व धन न लगायें एवं उनमें एकदेश त्याग की बात कही गई है जो अणुव्रत कहलाता है। इसीप्रकार, तीन गुणव्रत-दिग्वत, अनर्थदंडव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत और । चार शिक्षाव्रत-देशावकाशिक, सामायिक, पोषधोपवास व अतिथि संविभाग व्रत गृहस्थ के जीवन व अर्थ संबंधी चर्या पर प्रकाश डालकर उसे अपनी अर्थव्यवस्था का संचालन किस प्रकार करना चाहिए, उसका वर्णन । चरणानुयोग शास्त्रों में मिलता है। सप्त व्यसन का त्याग व श्रावक के अष्टमूलगुणों का पालन भी अपने उपार्जित | धन के प्रयोग की कला बतलाता है। श्रावक की षट् आवश्यक क्रियायें, चार धर्म या दान के प्रकार आदि का तो । विस्तार से वर्णन आगम में मिलता है जैसा अन्यत्र नहीं है। परमार्थ की सिद्धि के लिए कैसी गृहस्थ की अर्थव्यवस्था i होनी चाहिए- इसका अद्भुत वर्णन चरणानुयोग है। ! सीमित उपलब्ध साधनों से अधिक सुख/लाभ की प्राप्ति अर्थशास्त्र का प्रमुख व महान सिद्धांत है। इस लेख में पूर्व में रॉबिन्स के मत को बताया था कि हिमालय के साधु पर भी अर्थशास्त्र के सिद्धांत पूर्णतः लागू होते हैं। अतः श्रावक के साथ-साथ मुनिराज के जीवन में भी अर्थशास्त्र के महान सिद्धांत घटित होते हैं। मुनिराज अपने आत्मध्यान, महाव्रतों का पालन एवं उग्र तपस्या के द्वारा मोक्ष के परम व अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं। मुनिराज कोई भी बाह्य भौतिक या अन्य साधनों के प्रयोग के बिना ही एक अद्भूत परमार्थिक सुख की प्राप्ति करतेहैं, ऐसा जैनागम एक पारमार्थिक अर्थशास्त्र है। कभी-कभी तो मुनिराजों को अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट होती हैं जो किसी भी धन या अन्य प्रकार की मेहनत से नहीं प्राप्त की जा सकती हैं। बुद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस व क्षेत्र नामक आठ प्रकार की ऋद्धियों के स्वामी मुनिराज होते हैं और उनके अनेक भेद भी होते हैं। जो इन ऋद्धियों से प्राप्त होता है वह वर्तमान में किसी भी वैज्ञानिक आविष्कार या साधनों से प्राप्त करना असंभव है। तीर्थंकर के जीव को समवसरण की विभूति प्रकट होती है जो अनेक दृष्टि से सारे विश्व की अद्भुत रचना होती है और अनेक आश्चर्यकारी घटनाओं से सुशोभित होती है। उस जैसी सभा जगत की महा महिमामय सभा है। अरहंत व सिद्ध भगवान का सुख-अर्थशास्त्र के सुख व लाभ के सिद्धांत का परम शिखर है, जीवन शास्त्र व जिनागम का लक्ष्य एवं सार है। द्रव्यानुयोग अर्थशास्त्र को धन या वैभव का विज्ञान कहते हैं और द्रव्यानुयोग तो आत्म वैभव का विज्ञान है एवं जैन धर्म का प्राण है। वीतराग विज्ञान पद से दौलतरामजी ने इसे सम्बोधित किया। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, तत्त्वार्थसूत्र, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार जीवकांड, परमात्म प्रकाश आदि अनेक ग्रंथों में छः द्रव्यों का, पुण्य-पाप व बंध- मोक्ष का वर्णन मिलता है। उनमें अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों की झलक भी मिलती है। समयसार ग्रंथ की प्रथम गाथा की टीका करते हुए अमृतचंद्र आचार्य कहते हैं कि धर्म, अर्थ व काम त्रि वर्ग कहलाते हैं और मोक्ष इस वर्ग में नहीं है, इसलिए उसे अपवर्ग कहते हैं। अर्थात् मोक्ष की बात बताने के लिए
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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